पृष्ठ:रहीम-कवितावली.djvu/६२

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
11
दोहे।


जो घरही मैं घुसि रहैं, कदली सुवन सुडील ।

तो रहीम तिनते भले, पथके अपत करील ॥८०॥


जो रहीम गति दीप की, कुल सपूत की सोइ।.

बड़े उजेरो तेहि रहे, बढ़े अँधेरो होइ ॥ ८१॥ *

ज्यो नाचति कठपूतरी, करम नचावत साथ ।।

अपनो हाथ रहीम त्यों, नहीं आपने हाथ ॥ ८२॥


टूटे सुजन मनाइए, जो टूटैं सौ बार ।

रहिमन फरि-फिरि पोहिए, टूटे मुकता हार॥ ८३ ॥

तनु रहीम है कर्म-बस, मन राखो वहि ओर।

जल में उलटी नाव ज्यों, खैंचत गुन के जोर ॥ ८४॥


तबहीं लग जीबो भलो, दीबो परै न धीम।

बिन दीबो जीबो जगत, हमहिं न रुचै रहीम ॥ ८५॥

तरुवर फल नहिं खात हैं, सरवर पियाहिं न पान ।

कहि रहीम पर काज हित, सम्पति सँचाहिं सुजान ॥८६॥


८०-१-ब्रज के करीर-कुंज प्रख्यात हैं । इनमें पत्ते नहीं होते।

'कोटिन ही कलधौंत के धाम, करीर के कुंजन ऊपर वारौं।'

रसखानि
  • ८१-देखो दोहा नं० ७२

+ ८२-इसी भाव का एक दोहा और भी है:-

निज कर क्रिया रहीम कहि, सुधि भावी के हाथ ।

पाँसे अपने हाथ में, दाँव न अपने हाथ ॥

देखो दोहा नं० १०४


८६- यह एक संस्कृत श्लोक का अनुवाद है। . . . .