जो घरही मैं घुसि रहैं, कदली सुवन सुडील ।
तो रहीम तिनते भले, पथके अपत करील ॥८०॥
जो रहीम गति दीप की, कुल सपूत की सोइ।.
बड़े उजेरो तेहि रहे, बढ़े अँधेरो होइ ॥ ८१॥ *
ज्यो नाचति कठपूतरी, करम नचावत साथ ।।
अपनो हाथ रहीम त्यों, नहीं आपने हाथ ॥ ८२॥
टूटे सुजन मनाइए, जो टूटैं सौ बार ।
रहिमन फरि-फिरि पोहिए, टूटे मुकता हार॥ ८३ ॥
तनु रहीम है कर्म-बस, मन राखो वहि ओर।
जल में उलटी नाव ज्यों, खैंचत गुन के जोर ॥ ८४॥
तबहीं लग जीबो भलो, दीबो परै न धीम।
बिन दीबो जीबो जगत, हमहिं न रुचै रहीम ॥ ८५॥
तरुवर फल नहिं खात हैं, सरवर पियाहिं न पान ।
कहि रहीम पर काज हित, सम्पति सँचाहिं सुजान ॥८६॥
८०-१-ब्रज के करीर-कुंज प्रख्यात हैं । इनमें पत्ते नहीं होते।
'कोटिन ही कलधौंत के धाम, करीर के कुंजन ऊपर वारौं।'
- ८१-देखो दोहा नं० ७२
+ ८२-इसी भाव का एक दोहा और भी है:-
निज कर क्रिया रहीम कहि, सुधि भावी के हाथ ।
पाँसे अपने हाथ में, दाँव न अपने हाथ ॥
८६- यह एक संस्कृत श्लोक का अनुवाद है। . . . .