रहीम-कवितावली। जाल परे जल जात बहि, तजि मीनन को मोह । रहिमन मछरी नीर को, तऊ न छाँड़त छोह ॥ ५७॥ . चित्रकूट में रमि रहे, रहिमन अवध नरेस । जेहि पर विपदा परत है, सो आवत यहि देस ॥ ५८ ॥ * जे अनुचितकारी तिन्है, लगै अंक परिनाम । लख्खे उरज उर बेधिए, क्यों न होइ मुख स्याम ॥ ५६ ॥ जे गरीब पर हित करें, ते रहीम बड़ लोग । कहा सुदामा बापुरो, कृष्ण-मिताई-जोग ॥ ६०॥ जेहिं रहीम तन-मन दियो, कियो हिए बिच भौन । तासों दुख-सुख कहन की, रही बात अब कौन ॥ ६१॥ जेहि रहीम चित आपनो, कीन्हो चतुर चकोर। निसि-पासर लागो रहै, कृष्ण-चन्द्र की ओर ॥ ६२॥ जेहिं अंचल दीपक दुरो, हन्यो सो ताही गात । रहिमन असमय के परे, मित्र सत्रु द्वै जात ॥ ६३॥
- ५८-देखो दोहा नं० १०॥
५६-१-निशान-अपवाद । ६०-१-दीन-बेचारा। ६३-१-छिपाया गया-रक्षा की गई। + रहीम का एक दूसरा दोहा भी ऐसा ही है:- जो रहीम दीपक दसा, नित राखत पट भोट । समय परे से होत है, वाही पट की चोट ॥ देखो दोहा नं० ६६