पृष्ठ:रहीम-कवितावली.djvu/५६

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दोहे। कागद को-सो पूतरा, सहजहिं में घुलि जाय । रहिमन यह अवरज लखौ, सोऊ खेचत बाय ॥ ३१॥ * काज परे कछु और है, काज सरे कछु और। रहिमन भाँवर के भए, नदी सिरावत मौर ॥ ३२ ॥ काम कछू आवै नहीं, मोल रहीम न लेइ । बाजू टूटे बाज को, साहब चारा देह ॥ ३३ ॥ काह कामरी पामरी, जाडु गए ते काज । राहेमन भूख बुझाइए, कैलो मिलै अनाज ॥ ३४ ॥ काह करब बैकुंठ लै, कलपवृच्छ की छाँह । रहिमन ढाके सुहावनी, जो गल पीतम-बाँह ॥ ३५॥ कुटिलन संग रहीम कहि, साबू बचते नाहिं। ज्यों नैना सैना कर्हि, उरज उमेठे जाहिं ॥ ३६॥ कोउ रहीम जनि काहु के द्वार गए पछिताय । सम्पति के सब जात है, बिपति सबै ले जाय ॥ ३७॥ कौन बड़ाई जलधि मिलि, गंग नाम भो धीम।। काकी महिमा नहिं घटी, पर घर गए रहीम ॥ ३८ ॥

  • ३१-कहीं-कहीं यही दोहा ऐसे भी पाया जाता है:-

” रहीम अब कौन है, एती बँचत बय। जस कागद को पूतरा, नमी माँहिं घुलि जाय ॥ ३२-१-निकल जाने पर-काम होजाने पर। २-भाँवरें पड़ जाने पर- ब्याह होजाने पर। ३५-१-पलास का वृक्ष जिनमें टेसू फूलते हैं। । अहमद के दोहों में भी यह दोहा पाया जाता है । केवल 'रहिमन' की जगह 'अहमद' नाम है।