चन्द्रमा के अवगुण कह कर अपने प्रिय की मति-हीनता
प्रगट करती है। वह अपने रूप के सन्मुख चन्द्रमा को स-
मता के लिए लाना भी अपना महा अपमान समझती है।
उसके कथन में जितना गर्व, भाव की प्रौढ़ता तथा ज्नोर
है, उतना तुलसीदासजी के दोहे में नहीं है। दूसरी बात
यह भी है कि रहीम सुन्दर शब्द-योजन के साथ, तुलसी-
दासजी से थोड़े ही शब्दों में, अपना पूरा भाव व्यक्त करने
में समर्थ हुए हैं। हमारी राय में तुलसीदासजी के दोहे
से रहीम के बरवै में अधिक लालित्य है।
रहीम-कृत बरवै नामक जो पुस्तक है और जिसका
परिचय हम पहिले दे चुके हैं, उसके मंगलाचरण के जितने
बरवै छन्द हैं, वे प्रायः सभी तुलसीदासजी के मंगला-
चरण के सोरठों को, जो बालकांड के आदि में दिए हुए हैं,
सन्मुख रखकर बनाए गए हैं। तुलसीदासजी ने मंगलाचरण
में संस्कृत के श्लोक लिखने के उपरान्त पाँच सोरठों में
गणेश, विष्णु, शिव, और गुरु की बन्दना की तथा आगे
चलकर एक सोरठे में हनुमानजी की स्तुति की है। रहीम
ने भी प्रथम ६ बरवों में गणेश, श्रीकृष्ण, सूर्य, शिव, हनु-
मानजी और गुरु की बन्दना की है। यद्यपि रहीम ने गणेश,
हनुमान्, तथा गुरु की बन्दना लिखते हुए यत्र-तत्र
कुछ परिवर्तन कर दिया है फिर भी उनमें तुलसीदासजी
के भावों की झलक साफ़ दिखाई देती है। पाठकों