जहाँ इनकी कविता में इतनी अच्छाई मिलती है वहाँ कहीं-कहीं भाषा की बहुत शिथिलता भी पाई जाती है । इस शिथिलता का कारण अधिकांश पाठ की अशुद्धता ही हमें प्रतीत होती है जिसके विषय में, पुस्तकों का विवरण देते हुए, हम अपने विचार प्रकट कर चुके हैं। यहाँ पर उसके दुहराने की आवश्यकता प्रतीत नहीं होती । दूसरे कहीं-कहीं भाव-भंगता भी पाई जाती है इसका कारण भी उपरोक्त ही हो सकता है । अथवा न भी होने पर जबतक पाठकी बाबत निर्णय न होजाय इस विषय में कुछ कहना, हमारी समझ में उचित नहीं है। तीसरी बात दूसरे के भावों का समावेश है । इस दोष से रहीम भी वंचित न रह सके । रहते भी कैसे, बात असंभव थी। कारण हिन्दी-कवियों में थोड़ा-बहुत इस दोष के सभी भागी हैं। फिर भी यह बात हो सकती है कि कोई-कोई समर्थ कवि ऐसा करके भी अच्छे रूप में उसका निर्वाह कर गए हैं और इस प्रकार अपने ऊपर आए हुए लांछन पर एक अच्छा पर्दा-सा डाल गए हैं। परन्तु रहीम ऐसा नहीं कर सके । इनके दोहों में पूर्ववर्ती कवियों में तुलसीदासजी के भाव अधिक आए हैं। रहीम के चार दोहों में तुलसीदासजी के दोहों के भाव आए हैं । दोहा नं० १३,
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सदृश-भाव।