हृदय में लगते हैं, परन्तु उनके उत्पन्न होने का हर्ष श्याम
के हृदय में होता है।
नायिका अपने प्रीतम के प्रति स्नेह को अपनी अंतरंग सखी से प्रकट करती है। वह कहती है कि वैकुंठ को लेकर मुझे क्या करना है; कल्पवृक्ष के नीचे बैठकर भी मेरा क्या हित हो सकता है; मुझे तो केवल उनका प्रेम और संयोग चाहिए, जिसको पाकर ढाख की छाँह भी मुझे अधिक प्यारी और हितकर होगी। प्रीतम का वियोग होने से स्वर्ग-सुख पाकर भी सभी सुख-सम्पत्ति विषवत् प्रतीत होगी।
काह करब बैकुंठ लै, कल्पवृक्ष की छाँह।
रहिमन ढाख सुहावनी, जो गल पीतम-बाँह॥
रहीम की यह कैसी सरल और सरस उक्ति है। नायिका क प्रगाढ़ प्रेम को जिस खूबी से दिखाया है, सराहनीय है।
नगर-शोभावर्णन में रहीम एक कायस्थ-नायिका का वर्णन करते हुए कहते हैं कि वह ऐसी श्रृंगार-प्रिय तथा चपल प्रेमिका है कि संकेत से ही अपना सारा काम निकाल लेती है। नायिका इतनी चतुर है कि वह बरु- नियों के बालों की तो लेखनी बनाती है, नेत्रों में लगे हुए कज्जल से स्याही का काम लेती है और इनसे अपनी प्रेम- कथा लिखकर नायक को पढ़ाती है। सुचतुर नायक इसे पढ़कर अपार प्रेमानन्द पाता है।