तक दुर्लभ था। ऐसी अवस्था में भी लोग इन्हें घेरे रहते
थे। मजबूर होकर बड़े करुण-स्वर में रहीम यह उत्तर उन्हें
देते थे --
ये रहीम घर-घर फिरैं, माँगि मधुकरी खाँहि।
यारौ यारी छोड़ि दो, अब रहीम वै नाहिं॥
रहीम उन माँगतों से कहते हैं कि भई, अब हम भी तुम्हारे यार हो गए हैं अर्थात् तुम्हारी ही अवस्था को प्राप्त हो गए हैं। अब तो हम से अपनी पुरानी यारी-दानी-माँगते का सम्बन्ध छोड़ दो। क्योंकि हम स्वयम् अब दूसरों के टुकड़ों के सहारे रहते हैं। कितने हृदय-विदारक और करुणा-भरे वचन हैं।
दान के विषय में रहीम ने तो यहाँ तक कह डाला है कि --
तबही तक जीबो भलो, दीवो परै न धीम।
बिन दीबो जीबो जगत्, हमहिं न रुचै रहीम।।
रहीम के महद्दान के विषय में एक और किंवदन्ती चली आ रही है। गंग रहीम के समकालीन तथा अकबर के सभा-कवियों में से थे। रहीम इनका बड़ा सम्मान करते थे। कहा जाता है कि एकबार कविवर गंग ने रहीम की प्रशंसा में एक छप्पय बनाकर सुनाया था। इस पर रहीम ने ३६ लाख की एक हुंडी जो इनके सामने थी उठाकर गंग को दे दी थी। छप्यय निम्न लिखित था --