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नगर-शोभा वर्णन ।*
आदि रूप की परम द्युति,घट-घट रही समाइ ।
लघु मति ते मो मन रसन,अस्तुति कही न जाइ ॥
उत्तम जाति बराह्मनी,देखत चित्त लुभाइ ।
परम पाप पल में हरत,परसत वाके पाँइ ॥
परजापति परमेस्वरी,गंगा रूप समान ।
जाके अंग-तरंग में,करत नैन असनान ॥
रूप रंग रतिराज में,खतरानी इतरानि ।
मानो रची विरंचि पचि,कुसुम कनक में सानि ॥
पारस पाहन की मनो,धरे पूतरी अंग ।
क्यों न होइ कंचन बहू,जो बिलसै तिहि संग ॥
कबहुँ दिखावै जौहरनि,हँसि-हँसि मानिकलाल ।
कबहूँ चख ते च्वै परे,दूटि मुक्त की माल ॥
जद्यपि नैननि ओट है,बिरह चोट बिन घाइ ।
पिय-उर पीरा ना करै,हीरा-सी गड़ि जाइ ॥
कैथिनि कथन न पारई,प्रेम-कथा मुख बैन ।
छाती ही पाती मनो,लिखे भैन के सैन ॥
बरुनि-बार लेखनि करै,मसि काजर भरि लेय ।
प्रेमाखर लिखि नैन ते,पिय बाँचन को देय ॥
- अपूर्ण । देखो भूमिका-भाग।