पृष्ठ:रहीम-कवितावली.djvu/१०४

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मदनाष्टक
[१]

मनसि मम नितान्तम् आयकैं बासु कीया ।

तन धन सब मेरा मान तैं छीन लीया ॥

अति चतुर मृगाक्षी देखतैं मौन भागी ।

मदन शिरसि भूयः क्या बला आन लागी ॥

[२]

बहत मरुति मन्दम् मैं उठी राति जागी ।

शशिकर-कर लागें सेल ते पैन बागी +॥

अहह विगत स्वामी क्या करौं मैं अभागी ।

मदन शिरसि भूयः क्या बला आन लागी ॥

[३]

हर नयन हुताशम् ज्वालया जो जलाया ।

रति-नयन जलौघै खाख बाकी बहाया ॥

तदपि दहति चित्तम् मामकम् क्या करौंगी ।

मदन शिरसि भूयः क्या बला आन लागी ॥

[४]

विगत घन निशीथे चाँद की रोशनाई ।

सघन वन निकुंजे कान्ह बंसी बजाई ॥

सुत पति गतनिद्रा स्वामियाँ छोड़ भागीं ।

मदन शिरसि भूयः क्या बला आन लागी ॥


+"शशि-कर कर लागे सेजको छोड़ भागी ।