ब्रजभाषा और खड़ी बोली ] [ हरिऔध' प्रकार के अनेक पद्य हैं । क्या कविवर सूरदास, क्या वैष्णव-संसार के दूसरे प्रसिद्ध कवि सभी की रचनात्रों में इस प्रकार की कविता पायी जाती है ? भारतेन्दुजी के बहुत पद्य ऐसे हैं। उनकी गंगा-स्तुति का एक पद्य सोलह चरणों का है। वह प्रारम्भ यों होता है-"ब्रह्म द्रवभूत आनन्द मन्दाकिनी अलकनन्दे सुकृति कृति विपाके।" यदि इस प्रकार की कविता होती है और आद्योपान्त संस्कृत शब्दमयी होने पर भी ब्रजभाषा की कविता समझी जाती है तो खड़ी बोली में रचे गये इस प्रकार के कतिपय पद्य खड़ी बोली के पद्य क्यों न माने जावेंगे? यदि ऐसे पद्यों को लेकर वितण्डावाद किया जाय, तो अधिकांश वर्तमान हिन्दी-गद्य भी खड़ी का नहीं माना जायेगा। दूसरी बात यह कि खड़ी बोली की कविता में ब्रजभाषा के शब्द मिलाकर खिचड़ी पकायी जाती है। खिचड़ी. बड़ी मीठी होती है । क्या बुरा किया जाता है ? कौन ब्रजभाषा का कवि है जिसकी कविता बुन्देलखण्डी शब्दों से बची है ? कविवर विहारीलाल की मधुमयी कविता उससे मामूर है । क्या इन लोगों की कविता ब्रजभाषा की कविता नहीं मानी जाती ? गोस्वामी जी की अद्भुत रामायण में अनेक प्रान्तों के शब्द हैं- अवधी की वह अाकर है, ब्रजभाषा-भूषिता है, बुन्देलखण्डी से अलंकृत है, भोजपुरी से भावमयी है। क्या यह दूषण है ? यह तो भूषण ही माना गया है । भाषा-मर्मज्ञ भिखारीदास कहते हैं:- तुलसी-गंग दोऊ भये सुकविन के सरदार । इनके काव्यन में मिली भाषा विविध प्रकार ॥ देखिये, सहृदया 'ताज' की यह कई भाषामयी कविता कितनी मधुर है:- . . सुनो दिलजानी, मेरे दिल की कहानी, तुम दस्त ही बिकानी, बदनामी भी सहूँगी मैं।
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