ब्रजभाषा और खड़ी बोली ] ६७ [ 'हरिऔध' सेवकों को उचित पथ पर चलाने का अधिकार सब अधिकार वालों को है, किन्तु कशाघात करके उनको क्षत-विक्षत कर देना न्याय-संगत न होगा। आजकल देखता हूँ कि खड़ी बोली की कविता के सेवकों पर प्रहार-पर-प्रहार हो रहे हैं, उनको नाना लांछनों द्वारा लांछित किया जा रहा है । अपराध उनका यह है कि वे नीरस को सरस, तमोमयी अमा को राका-रजनी और काक-कुमार को कल-कंठ बनाना चाहते हैं। कहा जाता है कि उनकी खड़ी बोली की रचना क्लिष्ट होती है, उसमें ब्रजभाषा के शब्द मिलाकर खिचड़ी पकायीं जाती है, और शुद्ध शब्दों का प्रयोग करके उसे कर्कश किया जाता है। उनकी कविता में सरसता नहीं, लालित्य नहीं, भाव नहीं, ध्वनि नहीं, व्यंजना नहीं, कोमलता नहीं, प्रयोजन यह कि उसमें सब नहीं ही नहीं है-उत्तमता कुछ नहीं। मेरा सविनय निवेदन यह है कि क्या यह सत्य है ? मैं क्लिष्टता का प्रतिपादक नहीं, मैं कोमल कान्त-पदावली का अनुरक्त हूँ, प्रियप्रवास-रचना का और उद्देश्य है, मेरे इस कथन में सत्यता है या नहीं-यह 'बोलचाल' नामक ग्रंथ बतलावेगा, जो प्रियप्रवास का दूना है। किन्तु, प्रसाद-गुणमयी कविता का अनुमोदक होकर भी मैं यह कहने के लिये बाध्य हूँ कि कवि की स्वतन्त्रता हरण नहीं की जा सकती। उसको सब प्रकार की रचना करने अधिकार है। यदि कोई क्लिष्ट कविता करना ही पसन्द करता है, तो वह अवश्य सतर्क करने योग्य है। परन्तु यदि उसकी कविता सब प्रकार की है और उसमें से क्लिष्ट रचना ही दोष दिखलाने के लिए उपस्थित की जाती है तो यह अनुचित दोष-दर्शन है। प्रायः देखा जाता है कि किसी खड़ी बोली के कविता-लेखक की कोई अत्यन्त क्लिष्ट कविता उठाकर रख दी जाती है और तरह-तरह के व्यंग करके यह प्रश्न किया जाता है कि क्या यह खड़ी बोली की कविता है ? प्रयोजन यह कि खड़ी-बोली की कविता- रचना ढोंगमात्र है, उसमें अरसता छोड़ और कुछ नहीं। मेरा निवेदन यह है कि प्राचीन लब्ध-प्रतिष्ठ महाकवियों ने भी इस प्रकार की कविताएँ
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