ब्रजभाषा और खड़ी बोली ] ६५ [ 'हरिऔध' है, उस समय उर्दू भाषा उत्तरोत्तर समुन्नत होती हुई सरकारी कचहरियों में भी प्रतिष्ठालाभ कर चुकी थी; अतएव उसका प्रचार प्रान्त भर में हो गया था और उसके अाश्रय से खड़ी बोली प्रान्त-व्यापिनी भाषा बन गयी थी। ऐसी अवस्था में हिन्दी की समुन्नति के लिए उसका भी खड़ी बोली में लिखा जाना आवश्यक हो गया। यही कारण है कि ब्रजमण्डल-निवासी होकर भी राजा लक्ष्मण सिंह की लेखनी खड़ी बोली के अनुकूल चली और ब्रजभाषा के अनन्य भक्त होकर भी भारतेन्दु खड़ी बोली को भारत- व्यापनी बनाने में संकुचित नहीं हुए। राजा शिवप्रसाद के विषय में तो कुछ कहना ही व्यर्थ है; क्योंकि, उनका श्रादर्श था-"चलो तुम उधर को हवा हो जिधर की।" इतना होने पर भी हिन्दी गद्य-लेखकों ने पद्य की भाषा उस समय ब्रजभाषा ही रखीं। भारतेन्दु जी और लक्ष्मण सिंह के ग्रंथों की पद्य-भाषा ब्रजभाषा है। किन्तु, कुछ समय बीतने पर सुगमता और सुविधा का सामना करना पड़ा। इस समय पढ़ी-लिखी जनता खड़ी बोली से परिचित हो गयी थीं, अधिकांश लेखक भी जितना खड़ी बोली पर अधिकार रखते थे, उतना ब्रजभाषा पर नहीं। अतएव धीरे-धीरे वह अव्यवहृत हो चली और उसका समझना सुगम नहीं रहा । सामने उर्दू श्रादर्श था, जिसके गद्य-पद्य दोनों की भाषा एक थी; अतएव खड़ी बोली में ही हिंदी भाषा की कविता करने का प्रश्न छिड़ा । सुविधा और सुगमता की दोहाई दी गयी, धूम-धाम से अांदोलन हुआ, सफलता खड़ी बोली को मिली और इस प्रकार खड़ी बोली की कविता का सूत्रपात हुआ। ____ जनता अथवा मानव-हृदय सुविधा और सुगमता का अनुचर है। सामायिक प्रभाव उसका सूत्रधार है। समयानुसार जो सुगम और सुविधा- जनक पथ होता है लोक बहुत विरोध करने पर भी अन्त में उसी पथ पर अविरोध के साथ चलने लगता है-सदैव ऐसा होता आया है, आगे भी ऐसा ही होगा। हमारी परम पवित्र वेद-भाषा, सुसंस्कृता संस्कृत,
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