ब्रजभाषा और खड़ी बोली ] ६३ [ 'हरिऔध' किसी अन्य भाषा को आज तक प्राप्त नहीं हुश्रा । इक प्रान्त के अधिकांश सुककि आज भी उसके अनन्य उपासक हैं, बहुत लोग आज भी उसकी चकितकरी ललित कला के समर्थक हैं; किन्तु यह अवश्य है कि काल-गति से उसके अबाध प्रवाह में अब कुछ बाधा उपस्थित हो गयी है । इसके कारण हैं। उन्नीसवें शतक के प्रारम्भ में हिन्दी गद्य की नींव श्रीयुत लल्लूलाल और श्रीमान् सदल मिश्र द्वारा कुछ विशेष कारणों से पड़ी। यद्यपि इनके पहले के भी गद्य-ग्रन्थ हिन्दी में पाये गये हैं। इनमें महात्मा गोरखनाथ, गोस्वामी बिट्ठलनाथ और गोस्वामी गोकुलनाथ के ग्रन्थ प्रधान हैं । किन्तु, गद्य-विभाग का वास्तविक कार्य जो कि क्रमशः अग्रसर होता गया, उक्त दोनों सज्जनों के समय से ही प्रारम्भ होता है। हिन्दी-गद्य का जो सुन्दर बीज उन लोगों ने बोया वह श्रीयुत राजा शिवप्रसाद और राजा लक्ष्मण सिंह के सेचन-द्वारा कुछ काल के उपरान्त एक हरा-भरा पौधा बन गया। भारतेन्दु बाबू हरिशचन्द्र के कर-कमलों से लालित-पालित होकर यह पौधा एक प्रकाण्ड वृक्ष में परिणत हुआ और सुन्दर फूल-फल लाया । इस काल में और इसके परवर्ती काल में हिन्दी-गद्य के अनेक सुलेख उत्पन्न हुए । उन्होंने सुन्दर-सुन्दर पुस्तकें लिखीं, तरह-तरह के समाचारपत्र और मनोहर मासिक पत्रिकाएँ निकाली, और इस प्रकार उसको बहुत कुछ अलंकृत एवं श्री-सम्पन्न कर दिया । जो हिन्दी-गद्य किसी काल में कतिपय पंक्तियों में ही स्थान पाता था,जो थोड़े-से दानपत्रों, दस्तावेजों,तमस्सुकों, इकरारनामों और महज्जर-नामों के अाधार से ही जीवित था, जो या तो कुछ चिट्ठी- पत्री में दिखलायी पड़ता अथवा किसी टीकाकार की लेखनी से प्रसूत हो टूटी-फूटी दशा में किसी प्राचीन पुस्तक के मैले-कुचैले पत्रों में पड़ा रहता, वह इस काल में नये वसन-भूषणों से सुसज्जित होकर सर्व-जन-अाहत हुआ । पहले-पहल जो तेरहवें शतक में मेवाड़ की एक सनद' में दिखलायी पड़ा और अट्ठारहवें शतक में छोटे-छोटे लेखों अथवा साधारण पुस्तकों के
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