अजभाषा और खड़ी बोली ] ६२ [ 'हरिऔध' किन्तु खड़ी बोली की ये रचनाएँ अाकस्मिक हैं । ब्रजभाषा और खड़ी बोली दोनों शौरसेनी अपभ्रंश के रूप हैं। ब्रजभाषा का केन्द्र मथुरामण्डल है और खड़ी बोली का दिल्ली प्रान्त अथवा उसका समीप- वर्ती भू-भाग । किस प्रकार ब्रजभाषा उन्नति करते-करते पराकाष्ठा को पहुंची, यह आप लोगों ने देख लिया। जो सौभाग्य स्वयं शौरसेनी अथवा अपभ्रंश को नहीं प्राप्त हुआ, जो महत्त्व उसकी दूसरी बहनों-अवधी अथवा भोजपुरी बोलियों को नहीं मिला, वह अथवा उससे भी कहीं अधिक सौभाग्य और महत्त्व ब्रजभाषा ने हस्तगत किया। मैथिल-कोकिल की रचना में आप ब्रजभाषा की झलक देख चुके हैं। यदि आप आगे बढ़कर बंगाल में पदार्पण करेंगे तो वहाँ के प्राचीन कवि कीर्तिवास और चंडीदास इत्यादि की मधुर रचनाओं को भी वह माधुर्य वितरण करती दिखलायी पड़ेगी। पश्चिम-दक्षिण में राजपूताने और गुजरात में भी प्राप उसका प्रसार देखेंगे। वहाँ वह तात्कालिक पूर्वतन कवि की कविता- मालाओं को अपनी कोमलकान्त पदावलि-कुसुमावली द्वारा सुसजित करती दृष्टिगोचर होती है। भगवान् बुद्धदेव के साधन-बल से जिस प्रकार मागधी का हित-साधन हुआ था, उसी प्रकार भगवान् वासुदेव के सहवास से सुवासित होकर ब्रजभाषा भी समाप्त हुई। जहाँ-जहाँ उनके प्रेममय पंथ का प्रचार हुअा, जहाँ-जहाँ उनकी लोकविमुग्धकारिणी मुरली की चर्चा छिड़ी, जहाँ-जहाँ उनकी आराध्या श्रीमती राधिका देवी उनके साथ आराधित हुई, वहाँ-वहाँ कलित ललित-कलामयी ब्रजभाषा अवश्य पहुँची। न तो पंजाब इस प्रवाह में पड़ने से बचा, न बिहार, न मध्यप्रान्त । हमारे देश की चर्चा ही क्या, वह तो चिरकाल से भगवती ब्रजभाषा का भक्त है और आज भी उनके पुनीत चरणों पर भक्ति- पुष्पांजलि अर्पण कर रहा है। ब्रजभाषा-साहित्य का पद्य विभाग जितना विशद, उन्नत और उदात्त है, जितना ललित और सरस है, उतना ही प्रिय और व्यापक है। जो गौरव इस विषय में उसको मिला, भारत की
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