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ब्रजभाषा और खड़ी बोली हिन्दी भाषा के विकास की वार्ता के साथ खड़ी बोली के विकास का बहुत बड़ा सम्बन्ध है। यद्यपि खड़ी बोली की कविता कविवर खुसरो के समय से ही होने लगी थी तथापि कबीर साहब ने भी कभी-कभी खड़ी बोली की कविता लिखी है। कभी-कभी और सहृदय सुजन भी एक-आध पद्य खड़ी बोली का लिख जाते थे, जैसा कि निम्नलिखित पद्यों से प्रगट होता है- जंगल में हम रहते हैं-दिल बस्ती से घबराता है। मानुस गंध न भाती है, मृग मरकट संग सुहाता है। चाक गरेवाँ करके दम दम आहें भरना आता है। ललित किशोरी इश्क रैन दिन ये सब खेल खेलाता है ।। -ललित किशोरी हम खूब तरह से जान गये जैसा आनँद का कन्द किया। सब रूप सील गुन तेज पुंज तेरे ही मन में बन्द किया। तुम हुस्न प्रभा की बाकी ले फिर विधि ने यह फरफन्द किया। चम्पक दल सोन जुही नरगिस चामीकर चपला चन्द किया। -सीतला