हिन्दी भाषा का विकास ] ८५ [ 'हरिऔध' प्रभाकर-समान प्रभावशाली सूरदास और सुधाकर समान सुधासावी गोस्वामी तुलसीदास उत्पन्न हुए। मधुमयी लेखनी के आधार मलिक महम्मद जायसी और मम्मट-समान प्राचार्य पद के अधिकारी विवुधवर केशवदास इसी काल के जगमगाते रत्न हैं। इस समय यदि सम्राट अकबर हिन्दी-साम्राज्य-संवर्द्धन का केतु उत्तोलन कर रहे थे, तो मंत्रिप्रवर रहीम खां खानखाना उसको अमूल्य रत्नों का हार-उपहार देकर और सचिव- शिरोमणि महाराज बीरबल पारिजात पुष्प से उसकी पूजा करके फूले नहीं समाते थे । इस समय वह भारत के अधिकांश भाग में सम्मानित थी। महाराजाधिराज के समुच्च प्रासाद से लेकर एक साधारण विद्याव्यसनी की कुटीर तक में उसका सरस प्रवाह प्रवाहित था। वह वैष्णव-मण्डली का जीवन-सर्वस्व, विवुध समाज का अाधार-स्तम्भ, सहृदय- जन की हृदय-वल्लभा और रसिक जनों की रसायन-सरसी थी। इस समय अनेक सरस हृदय कवि उत्पन्न हुए, जिन्होंने अपनी रसमयी रचनाओं से हिन्दी-साहित्य को अजर-अमर कर दिया है । इस समय ब्रजभाषा का अखंड राज्य था; किन्तु इसी समय अवधी भाषा में 'पद्मावत' जैसा बड़ा ही अनूठा काव्य लिखा गया। ___ इस काल के समस्त बड़े-बड़े कवियों की भाषा और रचनाओं के उदाहरण मैं सेवा में उपस्थित नहीं कर सकता । किन्तु जो हिन्दीदेवी के अंक के निराले लाल हैं, जिन्होंने उसको निहाल ही नहीं किया, उसे चार चाँद भी लगा दिये, उनकी कुछ कविताएँ दिये बिना आगे बढ़ने को जी भी नहीं चाहता । साहित्य-संसार के सूर-सूर का एक नमूना देखिये- खंजन नैन रूप रस माते। अतिसय चारु चपल अनियारे पल पिंजरा न समाते । चल चल जात निकट श्रवनन के उलट पलट ताटंक फंदाते। सूरदास अंजन गुन अटके नतरु अबहिं उडि जाते ।।
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