हिन्दी भाषा का विकास ] ८४ [ 'हरिऔध' रहना नहिं देस बिराना है। यह संसार कागद की पुड़िया बूंद पड़े घुल जाना है। यह संसार काँट की बाड़ी उलझ पुलझ मर जाना है। यह संसार झाड़ औ' झाँखड़ आग लगे बरि जाना है। कहत कबीर सुनो भाई साधो सतगुरु नाम ठिकाना है। __ महात्मा गोरखनाथ कबीर साहब के प्रथम हुए हैं और सन्त-वाणी और हिन्दी गद्य के आदि प्राचार्य वे ही हैं। उनकी बानी का नमूना देखिये- अवधू रहिया हाटे बाटे रूख बिरिख की छाया। तजिबा काम क्रोध लोभ मोह संसार की माया । परन्तु इस प्रणाली को समुन्नत करनेवाले कबीर साहब हैं । उनकी रचनाएँ अधिक हैं और भावमयी हैं। अतएव उनका समादर भी अधिक हुआ है। हिन्दी-साहित्य को समुन्नत करने में वे बहुत सहायक हुई हैं । कबीर साहब की साखियाँ बड़ी मनोहर हैं। वे भजनों से अधिक जनता में प्रचलित हैं । उनका रंग देखिये- आछे दिन पाछे गये गुरु सों किया न हेत । अब पछताया क्या करै चिड़िया चुग गई खेत ॥ पाँचो नौबत बाजती होत छतीसो राग । सो मन्दिर खाली पड़ा बैठन लागे काग ॥ कबीर साहब के उपरान्त हिन्दी की समुन्नति और वृद्धि का वह समय आया जो फिर कभी नहीं आया। उनके बाद सौ बरस के भीतर हिन्दी- देवी का जो श्रृंगार हुआ, जो लोकोत्तर प्रसूनचय उनपर चढ़े, उनका वर्णन नहीं हो सकता। इस समय में हिन्दी-गगन को समुद्भासित करनेवाले, हिन्दू-संसार को अलौकिक आलोक से आलोकित करनेवाले
पृष्ठ:रस साहित्य और समीक्षायें.djvu/८३
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।