हिन्दी भाषा का विकास ] ८२ [ 'हरिऔध' जे हाल मिसकी मकुन तगा फुल दुराय नयना बनाय बतियाँ। कि ताबे हिजा न दारम ऐ जां न लेहु काहें लगाय छतियाँ । यकायक अज दिल दो चश्मे जादू बसद फरेबम बेबुर्द तसः । किसे पड़ी है जो जा सुनावे पिआर पी को हमारी बतियाँ । इन पद्यों में जो हिन्दी का रूप है, उसमें आदि के दो पद्यों में सरस ब्रजभाषा का सुन्दर नमूना है। नीचे के हिन्दी-पद्य में से यदि 'बतियाँ' को निकाल दें तो वह खड़ी बोली का बड़ा अनूठा उदाहरण है । नीचे के दोहे कितने मनोहर हैं- खुसरो रैन सुहाग की जागी पी के संग। तन मेरो मन पीउ को भये दोऊ एक रंग। श्याम सेत गोरी लिये जनमत भई अनीत । एक पल में फिर जात हैं जोगी काके मीत । गोरी सोवे मेज पर मुख पर डारे केस । चल खुसरो घर आपने रैन भई चहुँ देख । इस सहृदय सुकवि की एक बिल्कुल खड़ी बोली की कविता देखिये, यह आकाश की पहेली है- एक थाल मोती से भरा, सबके सिर पर औंधा धरा। चार ओर वह थाली फिरे, मोती उससे एक न गिरे ।। इन दोनों सजनों की कविताओं को पढ़कर आश्चर्य होता है कि किसी आदर्श के न होने पर भी इन लोगों ने कितनी सरस, टकसाली और सुन्दर हिन्दी लिखी है। मेरा विचार है कि कोई कविता-पुस्तक न होने पर भी यह नहीं कहा जा सकता कि इस इस प्रकार की भाषा का देश में उस काल प्रचार न था। सैकड़ों भजन, गीत और गाने की चीजें उस समय अवश्य होंगी और उनसे इन लोगों को कम सहारा न मिला
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