हिन्दी भाषा का विकास] ८० [ 'हरिऔध' अथवा वास्तविक हिन्दी कही जा सकती है। अतएव हिन्दी भाषा के आदि कवि होने का सेहरा चंद बरदाई के ही सिर है। चंद बरदाई का ग्रंथ 'पृथ्वीराज रासो' विशाल ग्रंथ है। उसकी भाषा में भी भिन्नता है । उसमें कई प्रकार की रचनाएँ हैं । वह केवल चंद की कृति भी नहीं है, ग्रंथ का अन्तिम भाग उसके योग्य पुत्र जल्ह द्वारा लिखा गया है। अतएव रासो के विषय में संदिग्ध बातें कही-सुनी जाती हैं- तथापि उसकी अधिकांश भाषा, ग्रंथ की सामयिक बातों पर वास्तविक उल्लेख, उस काल की सभ्यता के आदर्श, रासो को हिन्दी भाषा का आदि ग्रंथ मानने के लिए विवश करते हैं । कुछ उसकी भिन्न प्रकार की रचनाएँ यहाँ उद्धृत करता हूं:- दोहा पूरन सकल बिलास रस, सरस पुत्र फल दान । अन्त होइ सह गामिनी, नेह नारि को मान । समदरसी ते निकट है, भुगति मुगति भरपूर । विखम दरस वा नरन ते सदा सरवदा दूर ।।। ये पद्य बिलकुल प्रौढ़ हिन्दी काल के मालूम होते हैं- हरित कनक कांति कापि चंपेव गौरी। रसित पदुम गंधी फुल्ल राजीव नेत्री। उरज जलज शोभा नाभि कोशं सरोज। चरण कमल हस्ती लीलया राजहंसी । ऊपर जो दो कविताएँ लिख आया हूं, वे इन दोनों रचनात्रों से भिन्न हैं। अधिकांश स्थल पर चन्द की कविता बड़ी मनोहारिणी है। संभव है कि रासो में कुछ प्रक्षिप्त अंश भी हों; किन्तु जिन कविताओं में चन्द या जल्ह का नाम आया है, उनके तात्कालिक रचना होने में सन्देह
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