हिन्दी भाषा का विकास ] ७८ [ 'हरिऔध' च्युतिः तीसरे चरण में गिरि नय समम् के स्थान पर गिरि नदी समम् और चौथा चरण बजत्यायुर्जगति यथा विद्युद् नभर्सि होना चाहिए। यह पद्य यह बतलाता है कि किस प्रकार संस्कृत प्रयोगों और शब्दों का तोड़-फोड़ आदि में प्रारम्भ हुया। इसके बाद का आर्ष प्राकृत रूप देखिये। रभस वश नभ्र सुरशिरो-विगलित मन्दार जितांघ्रि टुगः। वीर जिनः प्रक्षालयतु मम सकलमवद्य जम्बालम् । यह संस्कृत-रूप है—आर्ष प्राकृत का रूप नीचे लिखा जाता है। देखिये कितना थोड़ा परिवर्तन है। रमस वस नम्म सुरसिरि-विगलित राजितांघि युगो। वीर जिनो पनखालेतु-मम सकल मवज जम्बालम् ॥ . शौरसेनी रूप कितना परिवर्तित है, यह नीचे लिखे पद्य से प्रकट होगा । पहिले संस्कृत-रूप उसके नीचे प्राकृत रूप लिखा जाता है। ईषदीषच्चुम्बितानि भ्रमरेः सुकुमार केसर शिखानि । अवतंस यन्ति दयमानाः प्रमदाः शिरीष कुसुमानि ।। ईसीसि चुम्बिआद्रं भमरेहिं सुउमार केसर सिहाई। ओदंसन्ति प्रमाणा पमदाओ सिरीस कुसुमाई। विदग्ध मुखमण्डनकार ने अपभ्रंश भाषा की निम्नलिखित कविता बतलायी है- रसिह केण उच्चाडण किन्जइ । जुयदह माणसु केण उविजइ। तिसिय लोउ खणि कण सुहिज्जइ । एह यहो मह भुवणे विजइ ।
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