हिन्दी भाषा का विकास ] ७७ [ 'हरिऔध' संस्कृत अर्चा की बातें कहने में मैं आर्ष प्राकृत की चर्चा को भूल गया। जब आप प्राकृत अधिक व्यापक हो गयी और अनेक प्रान्तों पर उसका अधिकार हो गया तो उसका रंग रूप भी बदला और उसका स्थान प्रान्तीय प्राकृत ने धीरे-धीरे ग्रहण कर लिया। इन प्रान्तीय प्राकृतों में मागधी और शौरसेनी की प्रभा के सामने शेष समस्त प्राकृतों की प्रभा मलिन हो जाती है । मागधी भगवान बुद्धदेव के आत्मबल के बलवती और प्रियदर्शी अशोक की धर्मप्रियता से समुन्नत हुई और चिरकाल तक भारत- व्यापिनी रही। शौरसेनी को यह गौरव तो नहीं प्राप्त हुअा, परन्तु वह भी बहुत दिनों तक भारतवर्ष के एक बृहत्भाग पर विस्तृत रही, पश्चात् अपभ्रंश भाषा में परिणत हो गयी । यही अपभ्रंश भाषा हमारी हिन्दी भाषा की जननी है। किस प्रकार वेदभाषा बदलते-बदलते हिन्दी भाषा के रूप में आयी, इसका उदाहरण मैं नीचे देता हूँ। मैं कुछ पद्य आर्ष प्राकृत, शैरसेनी, अपभ्रंश और तदुपरान्त हिन्दी भाषा के लिखता हूँ । आशा है, उनसे हिन्दी भाषा के विकास पर पूर्ण प्रकाश पड़ेगा । डाक्टर राजेन्द्रलाल मित्र की यह सम्मति है कि आदि प्राकृत का रूप गाथाओं में मिलता है। उनके इस सिद्धान्त का अनुमोदन मनीषी मैक्समूलर और डाक्टर वेबर आदि विद्वानों ने भी किया है। कहा जाता है कि आर्य प्राकृत का पूर्वरूप गाथात्रों में ही मिलता है । एक गाथा नीचे लिखी जाती है:- अध्रुवम् त्रिभवम् शरद्म निभम् । नट रंग समा जगि जन्मि च्युति । गिरि नद्य समम् लघु शीघ्र जवम् । व्रजतायु जगे यथ विद्यु नभे। संस्कृत के नियम के अनुसार दूसरे चरण के नट रंग समा को नट रंग समम्, जगि को जगति, जन्मि को जन्म, च्युति के स्थान पर
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