हिन्दी भाषा का विकास ] ७२ | 'हरिऔध' होकर पूर्व-दक्षिण और उत्तर-पश्चिम की ओर फैली। ऋग्वेद के दसवें मण्डल के ७५ वे सूक्त में 'नद्यो देवताः' सम्बन्धी मन्त्रों में नदियों का वर्णन है । उनमें गंगा, यमुना, सरस्वती, शतद्र, वितस्ता, सरयू , गोमती, विपाशा आदि उन नदियों का नाम अाया है जो इस समय भी पंजाब प्रान्त और हमारे पश्चिमोत्तर प्रदेश में वर्तमान हैं। इससे यह पता चलता है कि वैदिक काल में हमारी आर्य जाति इन्हीं प्रदेशों में निवास करती थी, और यही कारण है कि यह प्रदेश 'आर्यावर्त' कह- लाया । इस प्रदेश में निवास करते हुए आर्य जाति का सम्बन्ध यहाँ के आदिम निवासियों से स्थापित हुअा, और यहीं पर आर्य-भाषा के बहुत- से शब्द आर्येतर जातियों ने और बहुत-से आर्येतर जातियों के शब्द अार्यों ने ग्रहण किये । स्थिति और आवश्यकता के अनुसार यह आदान-प्रदान बढ़ता गया और आर्ष प्राकृत की उत्पत्ति हुई। अतएव आर्ष प्राकृत की उत्पत्ति का स्थान पायर्यावर्त कहा जा सकता है। इसके उपरान्त ज्यों-ज्यों आर्य जाति पूर्व और दक्षिण की ओर बढ़ती गयीं त्यों-त्यों उसका सम्बन्ध नयी-नयी आर्येतर जातियों से होता गया। साथ ही उनकी नित्य की व्यवहृत भाषा का प्रभाव भी उनकी प्रार्ष प्राकृत पर पड़ा, और यही स्थानपरक प्राकृतों की उत्पत्ति का कारण हुआ जैसा कि मागधी, अर्ध- मागधी, शौरसेनी, महाराष्ट्री, अवन्ती आदि स्थान-सम्बन्धी नामों से ही प्रकट होता है। श्रीयुत स्वर्गीय पण्डित बदरीनारायण चौधरी ने अपने व्याख्यान में लिखा है-"महाराष्ट्री शब्द' से प्रयोजन दक्षिण देश से नहीं, किन्तु भारतरूपी महाराष्ट्र से है।” प्राकृतप्रकाश-कार वररुचि भी कुछ इसी विचार के मालूम होते हैं । परन्तु यह सिद्धान्त एकदेशीय है । वास्तव बात यह है कि महाराष्ट्री नाम देशपरक है, चाहे किसी काल में वह बहुदूरव्यापिनी भले ही रही हो । 'प्राकृत-लक्षण' कार चण्ड ने चार प्राकृत का उल्लेख किया है-'प्राकृत', 'अपभ्रंश', 'पैशाचिकी' और "मागधी' उनकी संज्ञा है। प्राकृत से उनका अभिप्राय आर्ष प्राकृत से
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