पृष्ठ:रस साहित्य और समीक्षायें.djvu/७

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के सदस्य थे। बाबा जी ने हरिऔध जी के लिये अपना पुस्तकालय खोल दिया था, यहीं इनका परिचय भारतेन्दु साहित्य एवं 'कवि वचन सुधा' तथा 'हरिश्चन्द्र चन्द्रिका' की फाइलों से हुआ और हिन्दी साहित्य की ओर इनकी रुचि अत्यन्त वेग से बढ़ी।

इन्हीं दिनों हरिऔध जी तारिणीचरण मित्र नामक एक बंगाली के सम्पर्क में आये और उन्होंने बंगला सीखी। बंकिम के उपन्यास पढ़े और उनसे पर्याप्त प्रभावित हुए। पहले 'कृष्ण कान्तेर विल' का हिन्दी अनुवाद किया। बाद में 'ठेठ हिन्दी का ठाठ' और 'अधखिला फूल' नाम के दो मौलिक उपन्यास भी लिखे, जिनमें बोलचाल की सरलातिसरल भाषा का प्रयोग हुआ है। यह हरिऔध जी की प्रथम प्रकाशित कृति है। अपनी भाषा के कारण इन्होंने साहित्यिकों का ध्यान अपनी ओर तत्काल आकृष्ट कर लिया था।

उन्नीस वर्ष की आयु में हरिऔध जी ने १९२५ ई० में अपने अध्ययन काल ही में दो पौराणिक नाटक 'रुक्मिणी परिणय' और 'प्रद्यम्न विजय' नाम से लिखे थे जो क्रमशः १८९३-१८९४ ई० में प्रकाशित हुए।

श्री हरिऔध जी ने काव्य-रचना ब्रज भाषा में ही प्रारम्भ की थी। बाद में उन्होंने युग के चरण-चिन्हों पर चलकर खड़ी बोली में भी काव्य-रचना की। उनके ब्रज भाषा काव्यकाल की सीमा १८७९ ई० से १९०७ ई० तक है, यद्यपि वे ब्रज भाषा का स्नेह कभी भी नहीं छोड़ सके। 'रस कलस' उनका सबसे बड़ा ब्रज भाषा का काव्य ग्रन्थ है। इसकी अधिकांश रचनाएँ १९०७ ई० के पहले की हैं। यह एक रस ग्रन्थ है, जिसमें पर्याप्त नवीनता है।

श्री हरिऔध जी प्रायः ४० वर्ष तक खड़ी बोली की सेवा अगाध रूप से करते रहे। इनके दो महाकाव्य 'प्रिय प्रवास' और 'वैदेही वनवास' हिन्दी के लिये अमूल्य देन हैं। 'प्रिय प्रवास' संस्कृत के