हिन्दी भाषा का उद्गम ] ७० [ 'हरिऔध' संस्कृत के एक श्लोक का प्राकृत रूप देखिये। पहला शुद्ध मागधी, दूसरा अर्ध-मागधी है। रभश वशनभ्र सुर शिरो विगलित मन्दार राजितांघ्रि युगः। वीर जिनः प्रक्षालयतु मम सकलमवद्य जम्बालम् ।। १ लहश वशनमिल शुलशिल-विअलिद मन्दाल लायिदंहि युगे । __वील यिणे पक्खालदु मम शयल मवय्य यम्बालम् ।। २ लभश वशन मिल शुलशिल-विअलिद मन्दाल लाजि दहियुगे। वोल जिणे पक्खालदु मम शयल मवज जम्बालम् ॥ संस्कृत के श्लोक में और उसके प्राकृत रूप में कितना अधिक साम्य है, वह आप लोग स्वयं समझ सकते हैं। जो बातें ऊपर कही गयी हैं. वे भी कम उपपत्तिमूलक नहीं। ऐसी अवस्था में यदि प्राकृत भाषा वेदभाषामूलक नहीं है तो क्या देशभाषामूलक है ? वास्तव में मागधी अथवा अर्द्ध-मागधी, किम्वा पालि की जननी वैदिक संस्कृत है, और यही तीसरा सिद्धान्त है जिसको अधिकांश विज्ञानवेत्ता स्वीकार करते हैं; ऐसी दशा में दूसरे सिद्धान्त की अप्रौढ़ता अप्रकट नहीं ।*
- परिशिष्ट ४