हिन्दी भाषा का उद्गम ] ६६ [ 'हरिऔध' जो अभेदवादी हैं, वे इन शब्दों को मागधी भाषा के देशज शब्द मानते हैं । जो हो, किन्तु अधिकांश विद्वान् पालि और मागधी को एक ही मानते हैं। इस प्रकार के मतभेद और खींच-खाँच का अाधार कुछ धार्मिक विश्वास और कुछ अापेक्षिक ज्ञान की न्यूनता है । अतएव अब मैं इस विषय में कुछ विशेष लिखना नहीं चाहता। केवल एक कथन की अोर आप लोगों की दृष्टि और आकर्षित करूँगा। वह यह कि कुछ लोगों का यह विचार है कि मागधी को देशभाषामूलक मानकर मूल भाषा कहा गया है। किन्तु यह सिद्धान्त मान्य नहीं; क्योंकि यदि ऐसा होता तो द्राविड़ी और तैलगू आदि देशभाषात्रों के समान वह भी एक देशभाषा मानी जाती, परन्तु उसको किसी पुरातत्त्ववेत्ता ने आज तक ऐसा नहीं माना । वह आर्षभाषा संभवाही मानी गयी हैं; इसलिये यह तर्क सर्वथा उपेक्षणीय है। आर्षभाषा-संभवा वह इसलिये मानी गयी है कि उसकी प्रकृति आर्षभाषा अथवा वेदभाषामूलक है। प्राकृत भाषा के जितने व्याकरण हैं, उन्होंने संस्कृत के शब्दों अथवा प्रयोगों द्वारा ही प्राकृत के शब्दों और रूपों को बनाया है। प्राकृत भाषा का व्याकरण सर्वथा संस्कृतानुसारी है। संस्कृत और प्राकृत के अधिकांश शब्द' एक ही भोले के चट्ट-बटे अथवा एक फूल के दो दल, अथवा एक चना के दो दाल, मालूम होते हैं । थोड़े-से ऐसे शब्द नीचे लिखे जाते हैं :- संस्कृत मागधी संस्कृत मागधी कृतं कतं ऐश्वर्या इस्सरिय गहं मौक्तिकं मुत्तिक पोरो वृत्तान्तः वृत्तन्तो मनः मनो चित्तो भिःचु भिक्खु खुद्दे प्रागी गृहं घृतं घत पौरः चैत्रः अग्निः
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