जर्मन विद्वान वेनर कहते हैं- "वैदिक भाषा से ही एक ओर सुगठित और सुप्रणालीबद्ध हो कर संस्कृत भाषा का जन्म और दूसरी ओर मानव प्रकृति-सिद्ध और अनियत वेग से वेगवान प्राकृत भाषा का प्रचलन हुआ। प्राचीन वैदिक भाषा ही क्रमशः बिगड़कर सर्वसाधारण के मुख से प्राकृत हुई।"
विश्वकोष के प्रसिद्ध विद्वान् रचयिता स्वयं यह लिखते हैं- "वास्तविक आर्य जाति की आदि भाषा वेद में है। इसमें सन्देह नहीं कि इस वैदिक भाषा रूप सोतस्वती से ही संस्कृत और प्राकृत दोनों धाराएँ निर्गत हुई हैं।"
श्रीमान् विधुशेखर शास्त्री अपने 'पालीप्रकाश' नामक बँगला ग्रन्थ में लिखते हैं-"आर्यगण की वेद-भाषा और अनार्यगण की ग्रादिम भाषा में एक प्रकार का संमिश्रण उत्पन्न होने से बहुत-से अनार्य शब्द वर्तमान कथ्य वेदभाषा के साथ मिश्रित हो गये, इस संमिश्रणजात भाषा का नाम ही प्राकृत है।"
हिन्दी भाषा के प्रसिद्ध विद्वान् श्रीमान् पण्डित महावीर प्रसाद द्विवेदी की यह अनुमति है- "हमारे आदिम आर्यों की भाषा पुरानी संस्कृत थी, उसके कुछ नमूने ऋग्वेद में वर्तमान हैं। उसका विकास होते-होते कई प्रकार की प्राकृतें पैदा हो गयीं। हमारी विशुद्ध संस्कृत किसी पुरानी प्राकृत से ही परिमार्जित हुई है।"
अब देखना यह है कि इन तीनों सिद्धान्तों में से कौन-सा सिद्धान्त विशेष उपपत्तिमूलक है। प्रथम सिद्धान्त के विषय में मैं विशेष कुछ