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हिन्दी भाषा का उद्गम ]
[ 'हरिऔध'
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संस्कृत उसी का परिमार्जित रूपान्तर और हिन्दी उन्हीं स्रोतों में से एक स्रोत का सामयिक स्वरूप है। हम मीमांसा करके देखेंगे कि इनमें कौनसा सिद्धांत उपपत्तिमूलक है।

सबसे पहले प्रथम सिद्धांत को लीजिए। उसके प्रतिपादक संस्कृत और प्राकृत भाषा के कुछ प्राचीन विवुध और हमारी हिन्दी भाषा के कुछ धुरन्धर विद्वान् हैं। उनका यह कथन है:---

"प्रकृतिः संस्कृतम् तत्र भवम् तत् आगतम् वा प्राकृतम्।"

---वैयाकरण हेमचन्द्र

"प्रकृतिः संस्कृतम् तत्र भवत्वात् प्राकृतम् स्मृतम्"।

---प्राकृत चन्द्रिका-कार

"प्राकृतस्य तु सर्वमेव संस्कृतम् योनिं:।'

प्राकृत संजीवनी-कार

"यह सर्व सम्मत सिद्धान्त है कि प्रकृति संस्कृत होने पर भी कालान्तर में प्राकृत एक स्वतन्त्र भाषा मानी गयी।"

--स्वर्गीय पंडित गोविन्दनारायण मिश्र

"संस्कृत प्रकृति से निकली भाषा ही को प्राकृत कहते हैं।"

---स्वर्गीय पंडित बदरीनारायण चौधरी

अब दूसरे सिद्धान्त वालों की बातें सुनिए। इनमें अधिकांश बौद्ध और जैन विद्वान् हैं। अपने 'प्रयोग-सिद्धि' ग्रन्थ में कात्यायन लिखते हैं:--

सा मागधी मूल भासानरा ययादि कप्पिका।
ब्राह्मणो चस्सुतालापा सम्बुद्धा चापि भासरे॥