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कवि ]
[ 'हरिऔध'
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ने कहा 'कम सखुन' की जगह यदि 'बेजबाँ' होता तो शेर बोल उठता, क्योंकि तसवीर को कमसखुनी से कोई वास्ता नहीं। वास्तव में बहुत अच्छी इसलाह है। यह न समझिये कि उस्ताद आतश नहीं चूकते थे। एक बार मुशायरे में उन्होंने यह शेर पढ़ा 'सुर्मा मंजूरे नज़र रहता चश्मेयार को, नील का गंडा पिन्हाया मर्दु मे बीमार को'। हजरत नासिख ने कहा--वाह, क्या कहा है; 'नील का गंडा पिन्हाया मर्दुमें बीमार को'। आतश ताड़ गये, बोले- नील का गंडा नहीं, 'नीलगू गंडा पिन्हाया मर्दुमें बीमार को।' भाव यह कि इस तरह की छील- छाल और काट-छाँट बहुत ही उपयोगिनी और कवि को समुचित शब्द-संस्थान की शिक्षा देने के लिए बहुत ही हितकारिणी है। *
* परिशिष्ट ३