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कवि ]
[ 'हरिऔध'
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वाक्य में रस नहीं, वह काव्यसंज्ञा का अधिकारी नहीं। जो रस प्रसादगुणमयी कविता में होता है, अन्य में नहीं; और प्रसादगुण के लिए कोमलकान्त पदावली आवश्यक है। उर्दू का एक कवि कहता है 'जरे कदमे वालिदा फिरदौस वरी है'। दूसरा कहता है 'जुनू पसन्द है मुझको हवा बबूलों की, अजब बहार है इन ज़र्द ज़र्द फूलों की'। तीसरा कहता है, 'दिल मेल गये गेसुओं में फंसके, कुम्हला गये फूल रात बसके'। अब आप सोचिये, इनमें कौन अधिक सरस है, वही जिसकी कोमलकान्त पदावली है।

तीसरा कवि-कर्म है शब्द-विन्यास। शब्दों की काट-छाँट और उनका यथोचित स्थान पर संस्थान। यह कार्य बड़ी ही मार्मिकता का है। वर्तमान कविताओं में इसकी बड़ी त्रुटि है। इस कार्य के लिए एक अच्छे समालोचक-पत्र की आवश्यकता है। किन्तु खेद है कि हिन्दी संसार इससे शून्य है। आजकल की समालोचनायें इर्ष्या-द्वेषमूलक अधिक होती हैं। इसी से जैसा चाहिए वैसा उपकार नहीं हो सकता है। समालोचनायें सहृदयतामयी और उदार होनी चाहिएँ जिसको विरोधी भी स्वीकार करने को बाध्य हों। उचित समालोचनायें और कविता की समुचित काट-छाँट बहुत ही सुफलप्रसू है और वैसा ही उपकारक है जैसा उद्यान के छोटे-छोटे पौधों की काट-छाँट। कुछ प्रमाण लीजिये। हजरत आतश के सामने उनके शागिर्द सबा ने यह शेर पढ़ा---'मौसिमे गुल में यह कहता है कि गुलशन से निकल, ऐसी वेपर की उड़ाता न सैयाद कभी'। शेर बहुत अच्छा है मगर उस्ताद ने कहा कि अगर तुम यों कहते कि 'पर कतर करके यह कहता है कि गुलशन से निकल' तो शेर और भी बढ़ जाता। वास्तव में पर कतरने के साथ बेपर उड़ाने की बात ने कमाल कर दिया। एक मुशायरे में एक लड़के ने यह शेर पढ़ा, 'जिस कमसखुन से मैं करूँ तकरीर बोल उठे, मुझमें कमाल वह है कि तसवीर बोल उठे। हजरत नासिख ने इस शेर की बड़ी प्रशंसा की। हजरत आतश