पृष्ठ:रस साहित्य और समीक्षायें.djvu/५४

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कवि ] ५५ [ 'हरिऔध' विलक्षण न होगी, वह कविकर्म का अधिकारी न हो सकेगा । गजराजको शिर पर धूल डालते हुए चलते सभी देखते हैं पर इस क्रिया की एक बारीक बात सहृदयवर रहीम खाँ खानखाना ने ही देखी और विमुग्ध होकर कहा -- छार मुण्ड मेलत रहत कहु रहीम केहि काज । जेहि रज ऋषिपत्नी तरी सो ढूँढ़त गजराज ॥ चम्पा की हृदयलुभावनी छवि किसको नहीं लुभाती, पर एक सहृदय कवि के मुख से ही यह बात निकली चम्पा तो मैं तीन गुण, रूप, रंग औ' बास । तो मैं एक है, भौंर न बैठत पास ॥ कवि-कर्म यही है । तुकबन्दी करना कवि - कर्म नहीं है । कविवर 'ठाकुर' कहते हैं ठाकुर जो तुकजोरनहार उदार कविन्दन की सरि कैहैं । एक दिना फिर तो करतार, कुम्हार हूँ सो झगरो बनि एहैं । यदि मूर्ति खड़ी कर देने से ही काम चलता तो करतार और कुम्हार में अन्तर ही क्या है ? बात तो है सजीवता की, और इसीलिए विद्वानों ने कहा है किं कवस्तस्य काव्येन किं काण्डेन धनुष्मतः परस्य हृदये लग्नं न घूर्णयति यच्छिरः । जाके लागत ही तुरत सिर ना डुलै सुजान, ना वह कबित न कबिकथन ना वह तान न बान । दूसरा कवि-कर्म है कोमल - कान्त पदावली । श्राजकल की ककड भाषा में कविता करना कवि - कर्म नहीं है । 'वाक्यं रसात्मकं काव्यं' – जिस