विलक्षण न होगी, वह कविकर्म का अधिकारी न हो सकेगा। गजराज को शिर पर धूल डालते हुए चलते सभी देखते हैं पर इस क्रिया की एक बारीक बात सहृदयवर रहीम खाँ खानखाना ने ही देखी और विमुग्ध होकर कहा—
छार मुण्ड मेलत रहत कहु रहीम केहि काज।
जेहि रज ऋषिपत्नी तरी सो ढूँढ़त गजराज॥
चम्पा की हृदयलुभावनी छवि किसको नहीं लुभाती, पर एक सहृदय कवि के मुख से ही यह बात निकली—
चम्पा तो मैं तीन गुण, रूप, रंग औ'बास।
औगुण तोमैं एक है, भौंर न बैठत पास॥
कवि-कर्म यही है। तुकबन्दी करना कवि-कर्म नहीं है। कविवर 'ठाकुर' कहते हैं—
ठाकुर जो तुकजोरनहार उदार कविन्दन की सरि कैहैं।
एक दिना फिर तो करतार, कुम्हार हूँ सो झगरो बनि एहैं।
यदि मूर्ति खड़ी कर देने से ही काम चलता तो करतार और कुम्हार में अन्तर ही क्या है? बात तो है सजीवता की, और इसीलिए विद्वानों ने कहा है—
किं कवेस्तत्य काव्येन किं काण्डेन धनुष्मतः
परस्य हृदये लग्नं न घृर्णयति यच्छिरः।
जाके लागत ही तुरत सिर ना डुलै सुजान,
ना वह कबित न कबिकथन ना वह तान न बान।
दूसरा कवि-कर्म है कोमल-कान्त पदावली। आजकल की कर्णकटु भाषा में कविता करना कवि-कर्म नहीं है। 'वाक्यं रसात्मकं काव्यं'—जिस