मीमांसा तुरन्त कर द---
स्वाति बूंद सीपी मुकुत कदलो भयो कपूर।
कारे के मुख बिख भयो संगति केवल सूर॥
यह है कवि और कवि के शब्दों की क्षमता और महत्ता। यदि देश और जाति को आवश्यकता है, तो ऐसे कवियों की आवश्यकता है। यदि हमारी जाति के विकल्प नेत्र कोई प्रभावमय बदनारविन्द देखना चाहते हैं तो ऐसे ही शक्तिशाली कवि को देखना चाहते हैं। आज हमारी हिन्दू जाति का अधःपात प्रखर गति से हो रहा है, आज पद-पद पर उसका स्खलन हो रहा है। जातीय सभाएँ उसकी संघ-शक्ति का संहार कर रही हैं विधवाओं के करुण क्रन्दन से आज पत्थर का हृदय भी विदीर्ण हो रहा है, दिन-दिन उसकी संख्या क्षीण हो रही है, उसके हृदय-धन, उसके नेत्रों के तारे उससे अलग हो रहे हैं। आज भी बाल-विवाह का आर्त्तनाद कर्णगत हो रहा है। वृद्ध-विवाह आज भी समाज को विध्वंस कर रहा है। आर्य-सन्तान कहलाकर महर्षिकुल में जन्म लेकर, भगवती भारतमाता की गोद में पलकर आज भी हम कन्या-विक्रय कर रहे हैं। आज भी अपनी कुसुम-कोमल-बालिका को धन के लिये, थोड़े से अर्थ के लिये, हम तृष्णापिशाचिनी के सामने बलिप्रदान कर रहे हैं। यदि मन्दिरों में अकाण्ड तांडव है, तो सुरसरि-पुनीत-तट पर पैशाचिक नृत्य है। कहीं धर्म की ओट में सतीत्व-हरण हो रहा है, कहीं भभूत पर विभूति निछावर हो रही है। आज मनोमालिन्य का अखण्ड राज्य है, अविश्वास और अंधविश्वास की दुन्दुभी बज रही है। क्या कहें, किस-किस बात को कहें, जी यही कहता है--
क्या पूछते हो हमदम इस जिस्म नातवाँ की।
रग-रग में नेशे गम है कहिये कहाँ-कहाँ की॥