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कवि ]
[ 'हरिऔध'
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उसकी स्थिति नहीं है। काव्य प्रकृति और मानव की प्रतिमूर्ति है। कवि के लिये कोई पराया नहीं। वह सबको आनन्द देने और सबको सन्तुष्ट करने के लिये बाध्य है। सत्य की एक महान् कल्पना के भीतर कवि और भविष्यवक्ता एक दूसरे के साथ एक ही योगसूत्र में गुँथे हुये हैं। ये दोनों सबको अपना बना लेते हैं। इसकी उनमें ईश्वर की दी हुई विशेष शक्ति वर्तमान है। उनके ज्ञानचक्षुओं के सामने अदृष्टपूर्व और नये-नये दृश्यपट खुलते हैं। महान् कवि के विशाल हृदयराज्य में धर्म की राजधानी है।"

यह तो कवि-कर्म की परिभाषा हुई। उसका व्यावहारिक रूप क्या हो सकता है, यह विषय विचारणीय है। हम लोगों के अमर महाकाव्य रामायण और महाभारत हैं। कुछ दिन हुए मद्रास प्रान्त में व्याख्यान देते हए एक विद्वान ने कहा था कि "यदि हमारा सर्वस्व छिन जावे तो भी कोई चिन्ता नहीं, यदि रामायण और महाभारत जैसे हमारे बहुमूल्य मणि सुरक्षित रहें। इन दोनों ग्रन्थों में वह संजीवनी शक्ति है कि जब तक इनका सुधा-श्रोत प्रवाहित होता रहेगा, हिन्दू-जांति अजर-अमर रहेगी। जिस दिन यह सुधा-श्रोत बन्द होगा उसी दिन हिन्दू-जीवन और हिन्दूसभ्यता दोनों निर्मूल हो जावेगी"। उनके इस कथन का क्या मर्म है? उन्होंने किस सिद्धान्त पर आरूढ़ होकर यह कथन किया? वास्तव में बात यह है कि ये ग्रन्थ हिन्दू-सभ्यता के आदर्श हैं; हमारी गौरवगारिमा के विशाल स्तम्भ हैं। इनमें हमारे हृदय का मर्म स्वर्णाक्षरों में अंकित है; हमारे सुख-दुख का, हमारे उत्थान-पतन का ज्वलन्त उदाहरण इनमें मौजूद है। आर्यसभ्यता कैसे उत्पन्न हुई, कैसे परिवर्द्धित हुई, किनकिन घात-प्रतिघातों में पड़ी, फिर कैसे सुरक्षित रही, इसका उनमें सुन्दर निरूपण है। उनमें सामायिक चित्र हैं, आदर्शमूलक विचार हैं, समुन्नति के महामन्त्र हैं, सिद्धि के सूत्र हैं, व्यवहार के प्रयोग हैं, सफलता के साधन हैं। उनमें कामद कल्पलतिका है, फलप्रद कल्पतरु है, संजीवनी जड़ी है, अमर बेलि है और चारु चिन्तामणि है। प्रयोजन यह कि किसी