श्रीमान् भोलासिंह जी उपाध्याय श्री हरिऔध जी के पिता और श्रीमती रुक्मिणी देवी माता थीं। आप एक विदुषी महिला थीं। आपकी धर्मनिष्ठा अबतक निजामाबाद में प्रसिद्ध है। श्री हरिऔध जी के जीवन पर आपके पवित्र जीवन का बहुत प्रभाव पड़ा।
श्री हरिऔध जी के पितृव्य निःसन्तान थे और श्री हरिऔध जी पर उनका विशेष प्रेम था। इन्होंने हरिऔध जी को प्रारम्भिक शिक्षा दी। स्कूली शिक्षा के साथ साथ यह घर पर अपने विद्वान् ताऊ जी से संस्कृत भी पढ़ते रहे। सन् १८७९ ई० में इन्होंने प्रथम श्रेणी में मिडिल की परीक्षा पास की और सरकारी छात्रवृत्ति भी इन्हें मिली। दो वर्ष तक क्वींस कालेज में पढ़ते रहे। पर अस्वस्थता के कारण इन्हें काशी छोड़नी पड़ी। अब घर पर ही संस्कृत और फारसी प्रारम्भ की, साथ ही साथ काव्य, पिंगल ग्रन्थ तथा गुरुमुखी भाषा का भी अभ्यास किया।
इनके ताऊ जी को श्रीमद्भागवत से बड़ा प्रेम था। इसके श्लोकों को पारायण करते और उनका अर्थ भी श्री हरिऔध जी को बताते जाते थे। हरिऔध जी की माता पढ़ी-लिखी थीं। उनका प्रिय ग्रन्थ था 'सुख सागर।' जब हरिऔध जी की अवस्था सात आठ साल की थी, तब से वे प्रायः उनसे सुखसागर पढ़वाया करती थीं। श्री कृष्ण का ब्रज से प्रयाण करने का प्रसंग उन्हें विशेष रुचि-कर था। उसे सुनकर वे अविरल अश्रुधारा बहाया करती थीं। इस प्रकार पं० ब्रह्मासिंह जी की भागवत चर्चा के प्रभाव के साथ श्रीमती रुक्मिणी देवी के कोमल चित्त की करुण-छबि का आकर्षण संयुक्त होकर हरिऔध के हृदय को श्री कृष्ण की ओर उन्मुख करने- वाला सिद्ध हुआ। उस समय श्रीमती रुक्मिणी देवी को यह क्या मालूम रहा होगा कि उन दिव्य करुण-प्रसृत आंसुओं को मोतियों