वह मारे फलक काहे कशां नाम है जिसका,
क्या दख्ल जो वल खाके करे फ़ू मेरे आगे।
परन्तु, कवि चक्र चूड़ामणि महामान्य महात्मा तुलसीदास कहते हैं---'कवि न होऊँ', क्यों? ऐसा वे क्यों कहते हैं? इसलिये कि 'जेहि जाने जग जाय हेराई' अथवा 'आरां कि ख़बर शुद ख़बरश बाज़ नयामद', वे जानते हैं कि कवि शब्द का क्या महत्व है और इसीलिए वे कहते हैं कि मैं कवि नहीं हूँ। पृथ्वी की आकर्षण शक्ति के आविष्कारक प्रसिद्ध विज्ञानवेत्ता न्यूटन ने अन्त समय कहा था---"परमात्मा की अलौकिक रचना अगाध उदधि के कूल पर मैं सदा एक बालक की भाँति खेलता रहा खेलता रहा। कभी एकाध चमकीले कंकर मेरे हाथ लग गये। किन्तु, उसकी महिमा का अगाध समुद्र आज भी बिना छाने हुए पड़ा है।" वास्तव में बात यह है कि अपरिसीम अनन्त गगन में उड़नेवाला एक छुद्र विहंग उसका क्या पता पा सकता है? गोस्वामीजी के 'कवि न होऊँ' वाक्य की गम्भीर ध्वनि यही है। उन्होंने इस वाक्य द्वारा यह तो प्रकट किया है कि मैं कवि नहीं हूँ। किन्तु, उनके इस वाक्य का गांभीर्य ही यह प्रकट करता है कि वे कितने योग्य कवि थे। हमलोगों को भी उन्हीं का पदानुसरण करना चाहिये। हमलोगों को अपनी समाज-सेवा द्वारा, अपने भावोद्यान के सुमनों द्वारा, अपनी कवितालता के सौरभित दलों द्वारा, मनोराज्य के विपुल विभव द्वारा, प्रतिभा-भण्डार के बहुमूल्य मणि द्वारा, हृदय के सरस प्रवाह द्वारा, देश के लिये, जाति के लिये, लोकोपकार के लिये उत्सर्गीकृत जीवन होना चाहिये। जनता आप ही कहेगी कि हम कौन हैं। काम चाहिये, नाम नहीं। 'कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन'। एलिजाबेथ ब्राउनिंग का कथन है कि 'कवि सौन्दर्य का ईश्वर प्रेरित आचार्य है'। मैथ्यू आर्नल्ड कहते हैं---"जिसके काव्य में मानव-जीवन की गुप्त समस्यायें प्रतिफलित होती हैं और सौन्दर्य के साथ उन गूढ़ समस्याओं का समन्वय