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कवि ]
[ 'हरिऔध'
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नराः श्रेष्ठा:' अन्य लोग भी कहते हैं कि 'इन्सान अशरफुलमख़लूकात है', इसीलिए नरत्व दुर्लभ है। नरत्व प्राप्त होने पर विद्वान होना कठिन है। आप लोग स्वयं जानते हैं कि मनुष्यों में कितने वास्तव में विद्वान् हैं। विद्वानों से उच्च कवित्व अर्थात् कवि का पद है और इसीलिए शायद महात्मा तुलसीदास कहते हैं 'कवि न होउँ नहीं चतुर कहाऊँ'। थोड़ी सी काव्यप्रतिभा पाकर अथवा काव्य रचने में लब्धप्रतिष्ठ होकर किम्बा साहित्य निर्माण में स्वाभाविक योग्यता लाभ कर अनेक विद्वान् न जाने क्या-क्या कह जाते हैं। हमारे पण्डितराज जगन्नाथ कहते हैं---

मधु द्राक्षा साक्षादमृतमथवामाघर सुधा।
कदाचित्केषांचित्खलु हि विदधीरन्न विमुदम्।
ध्रुवन्ते जीवन्तोप्यहह मृतका मन्दमतयो।
न येषामानन्दं जनयति जगन्नाथभणितिः॥

शहद, अंगूर, अमृत और कामिनीकुल का अधरामृत कभी किसी को ही आनन्दित करते हैं। परन्तु वे मूर्ख तो जीते हुए ही मृतक तुल्य हैं जिन्हें कि पण्डितराज जगन्नाथ की कविता आनन्द न दे।

उर्दू के मशहूर शायर नासिख फरमाते हैं---

इक तिफल दबिस्तां है फलातूं मेरे आगे,
क्या मुँह है अरस्तू जो करे चूँ मेरे आगे।
क्या माल भला क़सरे फ़रेदूँ, मेरे आगे,
काँपे है पड़ा गुम्बदे गरदूँ मेरे आगे।
मुरगाने उलुल अजतेहा मानिन्द कबूतर,
करते हैं सदा इज्ज़ से यूँ यूँ मेरे आगे।
बोले है यही खामा कि किस किस को मैं बांधू,
बादल से चले आते हैं मज़मूँ मेरे आगे।