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साहित्य ]
[ 'हरिऔध'
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जाति की आँखें खोलता है, पते की सुना राह पर लगाता है, मर्मवेधी बात कह सावधान बनाता है, चूक दिखा चौकन्ना करता है, चुटकियाँ ले सोतों को जगाता है, वह इस योग्य है कि सोने के अक्षरों में लिखा जावे। वह अमृत है जो मरतों को जिलाता है। हिन्दी में ऐसे गद्यपद्य विरल हैं। उर्दू में कलामे अकवर में यह कमाल नजर आता है। देखिये---

बे परदा नजर आयीं कल जो चन्द बीबियाँ।

अकबर ज़मी में ग़ैरते कौमो से गड़ गया।
पूछा जो उनसे आपका परदा वह क्या हुआ।
कहने लगीं कि अक़ल पै मरदों के पड़ गया।
पाकर खिताब नाच का भी ज़ौक़ हो गया।
सर हो गये तो बाल का भी शौक हो गया।
हम ऐसी कुल किताबें क़ाबिले ज़ब्ती समझते हैं।
कि जिनको पढ़के लड़के बाप को ख़ब्ती समझते हैं।
किस तरह समझे कि क्या यह फ़िलसफ़ा मरदूद है।
क़ौम ही को देखिये वह मुरदा है मौजूद है।

इस रंग में बा-अक़बाल अक़बाल भी अच्छा कहते हैं। उनकी भी दो-एक बातें सुन लीजिये---

मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना।

हिन्दी हैं हम वतन है हिन्दोस्ताँ हमारा।
यूनान मिस्र रोमा सब मिट गये जहाँ से।
अब तक मगर है बाकी नामोनिशाँ हमारा।
कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी।
सदियों रहा है दुश्मन दौरे ज़माँ हमारा।

सौभाग्य की बात है कि दृष्टिकोण बदला है, परम कमनीय कलेवरा श्रृंगार रस की कविता-सुन्दरी कवि-मानस-समुच्च सिंहासन से धीरे-धीरे