किये गये हैं। कतिपय महात्माओं और भावुक जनों को छोड़कर अधिकाश ऐसे अनधिकारी ही हैं, और इसीलिए उनकी रचनाओं से जनता पथ-च्युत हुई। केहरि-पत्नी के दुग्ध का अधिकारी स्वर्ण पात्र है, अन्य पात्र उसको पाकर अपनी अपात्रता प्रकट करेगा। मध्य काल से लेकर इस शताब्दी के आरम्भ तक का हिन्दी-साहित्य उठाकर आप देखें, वह केवल विलास का क्रीड़ाक्षेत्र और काम-वासनात्रों का उद्गारमात्र है। संतों की बानी और कतिपय दूसरे ग्रन्थ अवश्य इसके अपवाद हैं। ऐसा ग्रंथ जो हिन्दू जाति का जीवन सर्वस्व, उन्नायक और कल्पतरु है, जो आदर्शचरित का भण्डार और सद्भाव-रत्नों का रत्नागार है, जो आज दश करोड़ से भी अधिक हिन्दुओं का सत्पथ-प्रदर्शक है, यदि है तो रामचरितमानस है, और वह गोस्वामीजी के महान् तप का फल है। कुछ ग्रन्थ हिन्दी भाषा में नीति और सद्विचार-सम्बन्धी और हैं, किन्तु उनकी संख्या बहुत थोड़ी है।
न वह साहित्य साहित्य है, न वह कल्पना कल्पना, जिसमें जातीय भावों का उद्गार न हो। जिन काव्यों, ग्रन्थों को पढ़कर जीवनी-शक्ति जागरित नहीं होती, निर्जीव धमनियों में गरम रक्त का संचार नहीं होता, हृदय में देश-प्रेम-तरंगें तरंगित नहीं होतीं, वे केवल निस्सार वाक्य-समूहमात्र हैं। जो भाव देश को, जाति को, समाज को स्वर्गीय विभव से भर देते हैं, उनमें अनिर्वचनीय ज्योति जगा देते हैं, उनको स्वावलम्बी, स्वतन्त्र, स्वधर्मरत और स्वकीय कर देते हैं, यदि वे भाव किसी व्यक्ति की सम्पत्ति नहीं, तो वे मौक्तिकहीन शुक्ति हैं। जिसमें मनुष्य जीवन की जीवन्त सत्ता नहीं, जो प्रकृति के पुण्य पाठ की पीठ नहीं, जिसमें चारु चरित चित्रित नहीं, मानवता का मधुर राग नहीं, सजीवता का सुन्दर स्वाँग नहीं, वह कविता सलिल-रहित सरिता है। जिसमें सुन्दरता विकसित नहीं, मधुरता मुखरित नहीं, सरसता विलसित नहीं, प्रतिभा प्रतिफलित नहीं, वह कवि-रचना कुकवि-वचनावली है। जो गद्य अथवा पद्य