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साहित्य ]
[ 'हरिऔध'
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लाता था, और जब हममें उसके समझने की मार्मिकता थी--उस समय हम पृथ्वी को दूहते थे, समुद्र को मथकर चौदह रत्न निकालते थे, पंचभूत पर शासन करते थे, व्योमयानों द्वारा आकाश में उड़ते थे, समुद्र पर पुल बनाते थे, पहाड़ को कानी उँगली पर नचाते थे, देह रहते विदेह होते थे, राजप्रासाद में रहकर गृह-संन्यासी थे, कायाकल्प करते थे और राज-त्यागी होकर भी कृपापात्र को राज-पद पर प्रतिष्ठित कर देते थे। अध्यात्म शक्ति इतनी प्रबल थी कि असीम पयोधि-जल को गण्डूष-जल समझते थे, पर्वत को नत-मस्तक कर देते थे और चक्रवर्ती भूपाल के रत्न-मण्डित मुकुट को पद-रज द्वारा आरंजित बनाते थे।

कहते व्यथा होती है कि कुछ कालोपरान्त हमारे ये दिन नहीं रहे--- हममें प्रतिकूल परिवर्तन हुए और हमारे साहित्य में केवल शान्त और शृंगार रस की धारा प्रबल वेग से बहने लगी। शान्त रस की धारा ने हमको आवश्यकता से अधिक शान्त और उसके संसार की असारता के राग ने हमें सर्वथा सारहीन बना दिया। श्रृंगार रस की धारा ने भी हमारा अल्प अपकार नहीं किया, उसने भी हमें कामिनी-कुल-श्रृंगार का लोलुप बनाकर, समुन्नति के समुच्च श्रृंग से अवनति के विशाल गर्त्त में गिरा दिया। इस समय हम अपनी किंकर्त्तव्यविमूढ़ता, अकर्मण्यता, अकार्यपटुता को साधुता के परदे में छिपाने लगे--और हमारी विलासिता, इन्द्रियपरायणता, मानसिक मलिनता भक्ति के रूप में प्रकट होने लगी। इधर निराकार की निराकारता में रत होकर कितने सब प्रकार वेकार हो गये, उधर आराध्यदेव भगवान् वासुदेव और परम आराधनीया श्रीमती राधिका देवी की आराधना के बहाने पावन प्रेम-पंथ कलंकित होने लगा। न तो लोक-पावन भगवान् श्रीकृष्ण लौकिक प्रेम के प्रेमिक हैं, न तो वंदनीया वृषभानुनन्दिनी कामनामयी प्रेमिका; न तो भुवन-अभिराम वृन्दावनधाम अवैध विलास-वसुन्धरा है, न कल-कलवाहिनी कलिन्दनन्दिनी-कूल कामकेलि का स्थान। किन्तु अनधिकारी हाथों में पड़कर वे वैसे ही चित्रित