दृष्टिगत होता है, वह केवल भाव का भाव के साथ, भाषा का भाषा के साथ, ग्रन्थ का ग्रन्थ के साथ मिलन है, यह नहीं, वरन् वह बतलाता है है कि मनुष्य के साथ मनुष्य का, अतीत के साथ वर्तमान का, दूर के सहित निकट का, अत्यन्त अन्तरंग योगसाधन साहित्य है यह और किसी के द्वारा सम्भव नहीं। जिस देश में साहित्य का अभाव है, उस देश के लोग परस्पर सजीव बन्धन से बँधे नहीं, विच्छिन्न होते हैं।" --साहित्य
'श्राद्ध-विवेक' और 'शब्द-शक्ति-प्रकाशिका' ने साहित्य की जो व्याख्या की है, कवीन्द्र का कथन एक प्रकार से उसकी टीका है, वह व्यापक और उदात्त है। कुछ लोगों का विचार है कि साहित्य शब्द काव्य के अर्थ में रूढ़ है--शब्द-कल्पद्रुम की कल्पना कुछ ऐसी ही है, परन्तु ऊपर की शेष परिभाषाओं और अवतरणों से यह विचार एकदेशीय पाया जाता है। साहित्य, शब्द का जो शाब्दिक अर्थ है, वह स्वयं बहुत व्यापक है। उसको संकुचित अर्थ में ग्रहण करना संगत नहीं। साहित्य समाज का जीवन है। यह उसके उत्थान-पतन का साधन है। साहित्य के उन्नत होने से समाज उन्नत, और उसके पतन से समाज पतित होता है। साहित्य वह आलोक है, जो देश को अन्धकार-रहित, जाति-मुख को उज्ज्वल और समाज के प्रभावहीन नेत्रों को सप्रभ रखता है। वह सबल जाति का बल, सजीव जाति का जीवन, उत्साहित जाति का उत्साह, पराक्रमी जाति का पराक्रम, अध्यवसायशील जाति का अध्यवसाय, साहसी जाति का साहस और कर्तव्यपरायण जाति का कर्तव्य है।
वह धर्म-भाव जो भव-भावनाओं का विभव है, वह ज्ञान-गरिमा जो गौरव-कामुक को सगौरव करती है, वह विचार-परम्परा जो विचारशीलता की शिला है, वह धारणा जो धरणी में सजीव जीव धारण का आधार है, वह प्रतिभा जो अलौकिक प्रतिभा से प्रतिभासित हो पतितों को उठाती है, लोचनहीन को लोचन देती है और निरवलम्ब का अवलम्बन होती है। वह कविता जो सूक्ति-समूह की प्रसूता हो संसार की सारवत्ता बतलाती