"इसमें भी सन्देह नहीं कि रसकलस लक्षण ग्रन्थ है। उसमें जो परिभाषाएँ तथा लक्षण लिखे गये हैं उनका अत्यन्त परिश्रम और सावधानी से संग्रह किया गया है, परन्तु मेरी आँखों में उसका मूल्य लक्षण ग्रन्थ होने में नहीं, बल्कि काव्य ग्रन्थ होने में है। लक्षणों का महत्व तो केवल प्रसंग की सूचना देने भर में है। उपाध्याय जी के कवि हृदय ने मानव हृदय को विभिन्न परिस्थितियों में देखा है। उनकी वाणी में हम मनुष्य की सूक्ष्म भावनाओं का अनूठा और सहृदयतापूर्ण मनोरम चित्रण पाते हैं। उनके काव्य का अन्तरंग और बहिरंग दोनों उत्कृष्ट और हृदयग्राही है। उनकी नायिकाएँ परम्परामुक्त होने पर भी अकृत्रिम और सजीव हैं। प्राचीन काल के किसी कवि के साथ उनकी तुलना करके उनका महत्व नहीं प्रकट किया जा सकता। ऐसा करना उनकी उस विशेषता को भूल जाना है जो प्रगतिशील जीवन को कभी दृष्टि से ओझल नहीं होने देती। उनका अपना अलग स्थान है। उनमें बिहारी की समाहार शक्ति, घनानन्द की स्वाभाविकता, मतिराम का लालित्य, रहीम का बाँकपन और रसखान की भावप्रवणता सब एक साथ विद्यमान हैं। परन्तु हम इन सबके ऊपर उनकी अपनी हरिऔधी छाप विद्यमान है। छलकता हुआ यह 'रसकलस' हमारे साहित्यिक मंगल का सूचक है, साहित्यमन्दिर के शिखर पर स्थान पाने योग्य है।
श्री रमाशंकर शुक्ल रसाल ने रसकलस की भूमिका के सम्बन्ध में लिखा है--"मूलग्रन्थ, चूंकि रीति ग्रन्थों की परम्परागत रचना-शैली से लिखा गया है, इसलिये उसमें रस सिद्धान्त से सम्बन्ध रखने वाले विविध मत-मतांतरों, उनके आधार पर होने वाले क्रमिक विकास आदि की सम्यक् समीक्षा या मीमांसा नहीं की गयी और इस प्रकार विषय विवेचन का एक अत्यन्त आवश्यक या अनिवार्य अंग रह गया था। अतएव उपाध्याय जी ने अपनी भूमिका में,