का आदर्श उपस्थित किया गया है और बतलाया गया है कि किस प्रकार अन्य रसों के वर्णन का विस्तार किया जा सकता है, और कैसे जाति, देश और समाज-संशोधन संबंधी विषयों को उनमें और संचारी भावों में स्थान दिया जा सकता है। इस ग्रंथ में देशप्रेमिका, जातिप्रेमिका और समाजप्रेमिका आदि नाम देकर कुछ ऐसी नायिकाओं की भी कल्पना की गयी है, जो बिलकुल नयी है, परन्तु समाज और साहित्य के लिए बड़ी उपयोगिनी है। इस समय देश में जिन सुधारों की आवश्यकता है, जिन सिद्धान्तों का प्रचार वांछनीय है, उन सबों पर प्रकाश डाला गया है, और उनके सुन्दर साधन भी उसमें बतलाये गये हैं।"
इस दृष्टि से तथा शास्त्रीय दृष्टि से रस कलस की महत्ता पं० रामचन्द्र शुक्ल जी ने इस शब्दों में व्यक्त की है--
"रसकलस में हरिऔध जी ने जो विचारपूर्ण भूमिका लगा दी है उससे रस के सम्बन्ध में लोगों को बहुत कुछ जानकारी प्राप्त हो सकती है। अन्त में यही कहना पड़ता है कि ब्रजभाषा की काव्यपरम्परा का अत्यन्त पूर्णता पर पहुँचा हुआ रूप दिखाकर हरिऔध जी ने एक बार फिर शिक्षित समाज को उसकी ओर आकर्षित कर लिया है।"
डा० बड़थ्वाल के ये अंश भी कम विचारणीय नहीं हैं--
"उपाध्याय जी का हिन्दी की विभिन्न बोलियों और शैलियों पर जो अधिकार है उसका अन्यत्र दर्शन दुर्लभ है। ग्रामीण उच्चारण युक्त ठेठ हिन्दी, साधारण बोलचाल, साधु साहित्यिक खड़ी बोली, उसी का संस्कृत संपृक्त स्वरूप, अवधी, ब्रजभाषा, सब उनके संकेत पर नाचती सी दीखती हैं। किसी भी प्रकार की शैली अथवा बोली में लिखने के लिए उन्हें अपनी शक्तियों का विशेष प्रयत्न पूर्वक आवाहन नहीं करना पड़ता।"