हरिऔध-]] ३१ [--रस-साहित्य समीक्षाएँ तब तक अनेक सशक्त कवि इस क्षेत्र में आ चुके थे जिनकी प्रथम दशक की खड़ी बोली की रचनाओं में निष्प्राण काव्य तत्वों का दर्शन स्पष्ट लक्षित होता है, पर उनमें काव्य की नयी चेतना का उद्रेक निश्चित रूप से दृष्टिगत भी होता है । वह है १६ वीं सदी की प्रतिक्रियामूलक ध्वंसात्मक भावनाओं का सर्जनात्मक परिधान धारण करना । काव्य में भावप्रवणता की मात्रा बढ़ती दीख पड़ती है । खड़ी बोली काव्य में बीसवीं शताब्दी के प्रथम दर्शक में छोटी- छोटी प्रबन्ध की रचनाओं अनुवादों आदि के अतिरिक्त श्री मैथिली- शरण गुप्त का 'जयद्रथ वध' प्रकाशित हो चुका था । पर तब तक के सभी प्रयोग अर्द्ध सफल ही माने जा सकते हैं । ऐसी ही प्रयोगात्मक स्थिति के बीच हौजी का 'प्रिय-प्रवास' हिन्दी संसार के सम्मुख आया । प्रिय- प्रवास का प्रकाशन खड़ी बोली के काव्य के इतिहास की एक घटना है जो खड़ी बोली के विरोधियों के लिए चुनौती बनकर यी। अपनी भूमिका में हरि जी स्वयं लिखते हैं कि... "मातृभाषा की सेवा करने का अधिकार सभी को तो है, बने या बने, सेवा प्रणाली सुखद ग्राहिणी या न होवे, परन्तु एक लालायित चित्त अपनी लालसा को पूरी किये बिना कैसे रहे ?” "यदि स्वान्त : सुखाय मैं ऐसा कर सकता हूँ तो अपनी टूटी- फूटी भाषा में एक हिन्दी काव्य गन्थ भी लिख सकता हूँ, निदान इसी विचार के वशीभूत होकर मैंने 'प्रिय प्रवास' नामक काव्य की रचना की है।" - - प्रिय प्रवास की भूमिका पृष्ठ १. "प्रिय प्रवास के बन जाने से खड़ी बोली में एक महाकाव्य की न्यूनता दूर हो गयी है" -- प्रिय- प्रवास भूमिका पृष्ठ २. "इस समय खड़ी बोली में कविता करने से अधिक उपकार की आशा है । इसलिये मैंने भी 'प्रिय प्रवास' को खड़ी बोली ही में लिखा है।" -- भूमिका पृष्ठ २९ :
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