"उपाध्याय जी पूरे शब्द-शिल्पी हैं। आपके एक-एक शब्द चुनेचुनाये, नपे-तुले होते हैं। जहाँ आपने केवल संस्कृत की ही कविता की सरिता बहाई है, वहाँ भी उस सरिता-स्रोत पर भी आपकी सुन्दर शब्द-तरंग-माला अठखेलियाँ करती देख पड़ती है।
आपको देखकर उस स्वर्ण युग के आदर्श ब्राह्मणों की याद आ जाती है। आपकी विद्वत्ता, सादगी, निर्लोभता, धर्मपरायणता आदि गुणों को देखकर ब्राह्मणत्व का एक स्पष्ट चित्र आँखों के निकट खिंच जाता है। आपकी विद्वत्ता अथाह है, अध्ययनशीलता अनुकरणीय है, सादगी सराहनीय है, धार्मिकता धारणीय है और निःस्पृहता अभिनन्दनीय है।
काव्य-चर्चा ही आपका व्यसन है। कविता ही आपकी सहचरी है। इन पंक्तियों के लेखक को जब जब आपके दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ तब तब इसने आपको कविता ही के बीच में बैठे पाया है।
इनका उन्नत ललाट इनकी प्रतिभा का द्योतक है। गंभीर मुख मंडल सदाचारिता का सूचक है। एक दुबले पतले शरीर में एक हृष्ट-पुष्ट आत्मा का विनोद-विलास इन्हीं को देखने पर दीख पड़ता है।
निर्लोभता की चर्चा पहिले हो चुकी है। इस युग में---इस रुपये पैसे के युग में---आपने रुपयों को पैरों से ठुकराया है। आप अपनी कवित्व शक्ति द्वारा बहुत कुछ उपार्जन कर सकते थे।
किन्तु सरस्वती का क्रय-विक्रय करना आपको पसन्द नहीं। आपने अपनी कृतियों को, जिसने माँगा उसे ही, उदारता पूर्वक मुफ्त दे दिया।
आप छोटे बड़े सभी आगन्तुकों से बड़े प्रेम से, दिल खोलकर मिलते हैं। अभिमान आपको छ नहीं गया है, आपका सीधापन देखकर दंग रह जाना पड़ता है। अतिथि सत्कार शायद आपके ही पल्ले में पड़ा है।
-रामवृक्ष बेनीपुरी