कविवर भारतेन्दु] २५४ [ 'हरिऔध' भी अधिकता से फैले । स्वामी दयानन्द सरस्वती ने आर्यसमाज का डंका बजाया और हिन्दुत्रों में जो दुर्बलताएँ, रूढ़ियाँ और मिथ्याचार थे उनका विरोध सबलता से किया। इन सब बातों का यह प्रभाव हुअा कि इस प्रकार के साहित्य की देश को आवश्यकता हुई जो कालानुकूल हो और जिससे हिन्दू समुदाय की वह दुर्बलताएँ दूर हों जिनसे उसका प्रतिदिन पतन हो रहा था। यही नहीं, इस समय यह लहर भी वेग से सब ओर फैली कि किस प्रकार देशवासी अपने कर्त्तव्यों को समझे. और कौन-सा उद्योग करके वे भी वैसे ही बनें जैसे योरोप के समुन्नत समाजवाले हैं। कोई जाति उसी समय जीवित रह सकती है जब वह अपने को देशकालानुसार बना ले और अपने को उन उन्नतियों का पात्र बनाये जिनसे सब दुर्बलताओं का संहार होता है, और जिनके आधार से लोग सभ्यता के उन्नत सोपानों पर चढ़ सकते हैं। इन भावों का उदय जब हृदयों में हुअा तब इस प्रकार की साहित्य-सृष्टि की ओर समाज के प्रतिभा सम्पन्न विवुधों की दृष्टि गयी और वे उचित यत्न करने के लिए कटिबद्ध हुए। अनेक समाचार-पत्र निकले और विविध पुस्तक- प्रणयन द्वारा भी इष्ट-सिद्धि का उद्योग प्रारम्भ हुआ। बाबू हरिश्चन्द्र इस काल के प्रधान कवि हैं। प्रधान कवि ही नहीं, हिन्दी साहित्य में गद्य की सर्व-सम्मत और सर्व-प्रिय शैली के उद्भावक भी आप ही हैं। हम इस स्थान पर यही विचार करेंगे कि उनके द्वारा हिन्दी पद्य में किन प्राचीन भावों का विकास और किन नवीन भाकों का प्रवेश हुअा। 'बाबू हरिश्चन्द्र महाप्रभु बल्लभाचर्य के सम्प्रदाय के थे। इसलिए भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र और श्रीमती राधिका में उनका अचल अनुराग था। इस सूत्र से वें ब्रजभाषा के अनन्य प्रेमी थे। उनकी अधिकांश रचनाएँ प्राचीन-शैली की हैं और उनमें राधाकृष्ण का गुणानुवाद. उसी भक्ति और श्रद्धा के साथ गाया गया है, जिससे अष्टछाप के वैष्णवों की रचनाओं को महत्ता प्राप्त है। उन्होंने न तो
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