पृष्ठ:रस साहित्य और समीक्षायें.djvu/२४६

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कविवर देव ] २४७ [ 'हरिऔध' देव जू लाज-जहाज ते कूदि रह्यो मुख [दि अजौं रहि रे मन । जोरत तोरत प्रीति तुही अब तेरी अनीति तुही सहि रे मन । (५) आवत आयु को योस अथोत - गये रबि त्यों अँधियारियै ऐहै। दाम खरे दै खरीद करौ गुरु मोह की गोनी न फेरि बिकहै। देव छितीस की छाप बिना जमराज जगाती महादुख है। जात उठी पुर देह की पैठ, अरे बनिये बनियै नहिं है। (६) ऐसो जो हौं जानतो कि जैहै तू विषै के संग __एरे मन मेरे हाथ पाँव तेरे वोरतो। प्राजु लौं हौं कत नरनाहन की नाहीं सुनी नेह सों निहारि हेरि बदन निहोरतो। चलन न देवो देव चंचल अचल करि चाबुक चितावनीनि मारि मुँह मोरतो । भारी प्रेम पाथर नगारौ दै गरे सों बाँधि राधाषर बिरद के वारिधि में बोरवो।