कविवर देव ] २४४ [ 'हरिऔध' कविता कामिनि सुखद पद, सुबरन सरस सुजाति । अलंकार पहिरे बिसद, अद्भुत रूप लखाति ॥ मैं देखता हूँ कि उनकी रचना में उनके इस कथन का पूर्ण विकास है। जितनी बातें इस दोहे में हैं वे सब उनकी कविता में पायी जाती हैं । उनकी अधिकतर रचनाएँ कवित्त और सवैया में हैं। उनके कवित्तों में जितना प्रबल प्रवाह, भोज, अनुप्रास और यमक की छटा है, वह विलक्षण है। सवैयों में यह बात नहीं है, परन्तु उनमें सरसता और मधुरता छलकती मिलती है। कवि या महाकवि दो प्रकार के देखे जाते हैं; एक की रचना प्रसादमयी और दूसरे की गम्भीर, गहन विचारमयी और गूढ होती है। इन दोनों गुणों का किसी एक कवि में होना कम देखा जाता है, देवजी में दोनों बातें पायी जाती हैं और यह उनकी उल्ले- खनीय विशेषता है। मानसिक भावों के चित्रण में, कविता को संगीतमय बनाने में भावानुकूल शब्द-विन्यास में, भाषानुसार शब्दों में ध्वनि उत्पन्न करने में और कविता को व्यंजनामय बना देने में महाकवियों की सी शक्ति देवजी में पायी जाती है। प्रायः ऐसे अवसर पर लोग तुलनात्मक समालोचना को पसन्द करते हैं। इसमें सन्देह नहीं कि ऐसा करने से एक दूसरे का उत्कर्ष दिखाने में बहुत बड़ी सहायता प्राप्त होती है। परन्तु ऐसी अवस्था में, निर्णय के लिए दोनों कवियों की समस्त रचनाओं की आलोचना होनी आवश्यक है । यह नहीं कि एक दूसरे के कुछ समान भाव के थोड़े से पद्यों को लेकर समालोचना की जाय और उसी के आधार पर एक से दूसरे को छोटा या बड़ा बना दिया जाय । यह एकदेशिकता है । कोई कवि दस विषयों को लिखकर सफलता पाता है और कोई दो-चार विषयों को लिखकर ही कृतकार्य होता है। ऐसी अवस्था में उन दोनों के कतिपय विषयों को लेकर ही तुलनात्मक समालोचना करना समुचित नहीं । समालोचना के समय यह भी विचारना चाहिये कि उनकी रचना
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