कविवर देव ] २४३ [ 'हरिऔध' ही हैं। मिश्र-बन्धुओं ने अपने ग्रंथ में देवजी के सम्बन्ध में निम्न- लिखित कवित्त लिखा है:- ... सूर सूर तुलसी सुधाकर नच्छत्र केशव, .. सेस कविराजन को जुगुनू गनाय कै । कोऊ परिपूरन भगति दिनरायो, अब, . - काव्य-रीति मोसन सुनहु चित लाय के। देव नभमंडल समान है कबीन मध्य, जामैं भानु सितभानु तारागन आय के। उदै होत अथवत चारों ओर भ्रमत पै __जाको ओर छोर नहिं परत लखाय कै । इससे अधिक लोग सहमत नहीं हैं । इस पद्य ने कुछ काल तक हिन्दी संसार में एक अवांछित अांदोलन खड़ा कर दिया था। कोई कोई इस रचना को अधिक रंजित समझते हैं। परन्तु मैं इसको विवाद-योग्य नहीं समझता । प्रत्येक मनुष्य अपने विचार के लिए स्वतंत्र है। जिस ने इस कवित्त की रचना की, उसका विचार देवजी के विषय में ऐसा ही था । यदि अपने भाव को उसने प्रकट किया तो उसको ऐसा करने का अधिकार था। चाहे कुछ लोग उसको वक्रदृष्टि से देखें, परन्तु मेरा विचार यह है कि यह कवित्त केवल इतना ही प्रकट करता है कि देवजी के विषय में हिन्दी संसार के किसी-किसी विदग्ध जन का क्या विचार है। मैं इस कवित्त के भाव को इसी कोटि में ग्रहण करता हूँ और उससे यही परिणाम निकालता हूँ कि देवजी हिन्दी-साहित्य- क्षेत्र में एक विशेष स्थान के अधिकारी हैं। कोई भाषा समुन्नत होकर कितनी प्रौढ़ता प्राप्त करती है, देवजी की भाषा इसका प्रमाण है । उनका कथन है:-
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