कविवर देव ] २४२ [ 'हरिऔध' उद्भूत होते हैं। उन्मुक्त कवि कर्म ही कवि-कर्म है जिसका कार्य चित्त का स्वतंत्र उद्गार है। जो हृदय किसी की चापलूसी अथवा तोषामोद में निरत है और अपने आश्रयदाता के इच्छानुसार कविता करने के लिए विवश है, या उसकी उचित-अनुचित प्रशंसा करने में व्यस्त है, वह कवि उस रत्न को कैसे प्राप्त कर सकता है जो स्वभावतया तरंमायमान मानस-उदधि से प्राप्त होते हैं। मेरा विचार है, इस कथन में सत्यता है। परन्तु इससे इस परिणाम पर नहीं पहुंचा जा सकता कि कोई कवि किसी के आश्रित रह कर सत्कवि या महाकवि हो ही नहीं सकता। क्योंकि प्रथम तो कवि स्वाधीनताप्रिय होता है, दूसरी बात यह कि कवि का अधिकतर सम्बन्ध प्रतिभा से है। इसलिए किसी का आश्रित होना उसके कवित्व गुण का बाधक नहीं हो सकता। किसी आत्म-विक्रयी की बात और है। हाँ, बंधन-रहित किसी स्वतंत्र कवि का महत्व उससे अधकि है, यह बात निस्संकोच भाव से स्वीकार की जा सकती है। कविवर देवदत्त में जो विलक्षण प्रतिभा विकसित दृष्टिगत होती है उसका मुख्य कारण यही है कि वे स्वतंत्र प्रकृति के मनुष्य थे जिससे वे किसी के श्राश्रय में चिरकाल तक न रह सके। जिस दरबार में गये उसमे अधिक दिन ठहरना उन्हें पसन्द नहीं आया। मालूम होता है कि बंधन उनको प्रिय नहीं था। मैं समझता हूँ इससे हिन्दी-साहित्य को लाभ ही हुआ क्योंकि उनके उन्मुक्त जीवन ने उनसे अधिकतर ऐसी रचनाएँ करायी जो सर्वथा स्वतंत्र कही जा सकती हैं। प्रत्येक भाषा के साहित्य के लिए ऐसी रचनाएँ ही अधिक अपे- क्षित होती हैं, क्योंकि उनमें वे उन्मुक्त धाराएँ बहती मिलती हैं जो पराधीनता एवं स्वार्थपरता दोष से मलिन नहीं होती । कविवर देव- दत्त की रचनाओं का जो अंश इस ढंग में ढला हुअा है वहीं अधिक प्रशंसनीय है और उसी ने उनको हिन्दी-साहित्य में वह उच्च स्थान प्रदान किया है जिसमें अधिकारी हिन्दी-संसार के इने गिने कवि-पुंगव. HHHHH
पृष्ठ:रस साहित्य और समीक्षायें.djvu/२४१
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।