कविवर देव ] २४१ [ 'हरिऔध' अर्जन करना । वे रीति-ग्रंथ के प्राचार्य ही नहीं थे और उन्होंने काव्य के दसो अंगों पर लेखनी चला कर ही प्रतिष्ठा नहीं लाभ की, वेदान्त के विषयों पर भी बहुत कुछ लिखकर वे सर्वदेशीय ज्ञान का परिचय प्रदान कर सके हैं । इस विषय पर उनकी 'ब्रह्म-दर्शन-पचीसी', 'तत्वदर्शन-पचीसी' 'श्रात्म-दर्शन-पचीसी' और 'जगत-दर्शन-पचीसी' आदि कई अच्छी रचनाएँ हैं । उनके 'नीतिशतक', 'राग-रत्नाकर', 'जातिविलास', 'भाव विलास' आदि ग्रंथ भी अन्य विषयों के हैं और इनमें भी उन्होंने अच्छी सहृदयता और भावुकता का परिचय दिया है। उनका 'देव माया प्रपंच' नाटक भी विचित्र है। इसमें भी उनका कविकर्म विशेष गौरव रखता है। शृंगार रस का क्या पूछना ! उसके तो वे प्रसिद्धि प्राप्त प्राचार्य हैं । मेरा विचार है कि इस विषय में प्राचार्य केशवदास के बाद उन्हीं का स्थान है। उनकी रचनाओं में रीति ग्रंथों के अतिरिक्त एक प्रबन्ध काव्य भी है जिसका नाम 'देव-चरित्र' है, इसमें उन्होंने भगवान कृष्णचन्द्र का चरित्र वर्णन किया है। प्रेम-चंद्रिका' भी उनका एक अनूठा ग्रंथ है । उसमें उन्होंने स्वतंत्र रूप से प्रेम के विषय में अनूठी रचनाएँ की हैं। कवि-कर्म क्या है। भाषा और भावों पर अधिकार होना और प्रत्येक विषयों का यथातथ्य चित्रण कर देना । देवजी दोनों बातों में दक्ष थे। सत्रहवीं और अट्टारहवीं शताब्दी में यह देखा जाता है कि उस समय जितने बड़े-बड़े कवि हुए उनमें से अधिकांश किसी राजा-महाराजा अथवा अन्य प्रसिद्ध लक्ष्मी-पात्र के आश्रय में रहे। इस कारण उनकी प्रशंसा में भी उनको बहुत सी रच- नाएँ करनी पड़ी। कुछ लोगों की यह सम्मति है कि ऐसे कवि अथवा महाकवियों से उच्च कोटि की रचनाओं और सच्ची भावमय कविताओं के रचे जाने की आशा करना विडम्बना मात्र है, क्योंकि ऐसे लोगों के हृदय में उच्छवासमय उच्च भाव उत्पन्न हो ही नहीं सकते जो एक श्रात्मनिर्भर, स्वतंत्र, अथच मनस्वी कवि अथवा महाकवि में स्वभावत:
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