आधुनिक हिन्दी साहित्य के इतिहास में उपाध्याय जी का स्थान बड़ा महत्वपूर्ण रहेगा। वर्तमान हिन्दी कविता की धारा को चिर प्रचलित ब्रजभाषा की ओर से हटाकर खड़ी बोली की ओर प्रेरित करने में उपाध्याय जी ने उसी प्रकार का परिवर्तन उपस्थित कर दिया है जिस प्रकार प्रसिद्ध कवि वड़सवर्थ ने अंग्रेजी कविता में उत्पन्न करने का प्रयत्न किया था। उनके ( वर्ड्सवर्थ के) लिरिकल वैलडस ने एक नये ढंग की कविताएँ जनता के सम्मुख रखी थीं, जिनकी भाषा में अभूतपूर्व सारल्य था और जो सबके लिये समान रूप में सुबोध थीं। 'उपाध्याय जी ने 'प्रियप्रवास' नामक भिन्न तुकान्त महाकाव्य उसी खड़ी बोली के परिष्कृत रूप में लिखकर 'वर्ड्सवर्थ' से भी बढ़कर असाधारण उथल-पुथल हिन्दी कविता में मचा दी थी, इसके सिवाय 'तिनका', 'आँसू' ऐसे साधारण विषयों पर भावपूर्ण कविता बनाकर उन्होंने इस बात का निराकरण कर दिया है कि किसी समय की बोलचाल की भाषा में उच्चकोटि के काव्य साहित्य का निर्माण नहीं किया जा सकता।
ठेठ भाषा में दो अपने ढंग के उत्तम उपन्यासों को निश्चित उद्देश्य से लिखकर उपाध्याय जी ने यह सिद्ध कर दिया है कि बिना खरे संस्कृत शब्दों अथवा उत्कृष्ट उर्दू की पदावली का सहारा लिये ही बोलचाल की भाषा में सजीव से सजीव गद्य लिखा जा सकता है। तात्पर्य यह है कि उन्होंने सदा के लिये हिन्दी गद्य का रुझान बोलचाल की ओर किया।
पं० अयोध्या सिंह जी स्वयं प्रायः संस्कृतमय गद्य लिखते हैं। कभी-कभी वे बड़े असाधारण क्लिष्ट शब्दों का प्रयोग करते हैं। परन्तु तब भी उनके वाक्यों में वह दुरुहता नहीं होती जो शायद पं० श्रीधर पाठक तथा पं० गोविन्दनारायण मिश्र की भाषा में पाई जाती है। उनका वाक्यविन्यास भी सरल होता है। वे एक सरस-हृदय तथा उच्चकोटि के कवि हैं इसलिये उन्हें सरस भाषा में प्रेम है। यही कारण है कि उनके वास्तविक गद्य में संस्कृत पदा